सुगर्भरु जन्म महोत्सव मांहि, जगज्जन आनन्दकन्द लहाहिं सुपूरब साठहि लच्छ जु आय, कुमार चतुर्थम अंश रमाय ॥ चवालिस लाख सुपूरब एव, निकंटक राज कियो जिनदेव तजे कछु कारन पाय सु राज, धरे व्रत संजम आतम काज ॥
सुरेन्द्र नरेन्द्र दियो पयदान, धरे वन में निज आतम ध्यान किया चव घातिय कर्म विनाश, लयो तब केवलज्ञान प्रकाश ॥ भई समवसृति ठाट अपार, खिरै धुनि झेलहिं श्री गणधार भने षट्-द्रव्य तने विसतार, चहूँ अनुयोग अनेक प्रकार ॥
मति श्रुत औधि उभै विधि जान, मनःपरजै चखु और प्रमान अचक्खु तथा विधि दान रु लाभ, सुभोगुपभोग रु वीरजसाभ ॥ व्रताव्रत संजम और सु धार, धरे गुन सम्यक चारित भार भए वसु एक समापत येह, इक्कीस उदीक सुनो अब जेह ॥
चहुँ गति चारि कषाय तिवेद, छह लेश्या और अज्ञान विभेद असंजम भाव लखो इस माहिं, असिद्धित और अतत्त कहाहिं ॥ भये इकबीस सुनो अब और, सुभेदत्रियं पारिनामिक ठौर सुजीवित भव्यत और अभव्व, तरेपन एम भने जिन सव्व ॥
तिन्हो मँह केतक त्यागन जोग, कितेक गहे तें मिटे भव रोग कह्यो इन आदि लह्यो फिर मोख, अनन्त गुनातम मंडित चोख ॥ जजौं तुम पाय जपौं गुनसार, प्रभु हमको भवसागर तार गही शरनागत दीनदयाल, विलम्ब करो मति हे गुनमाल ॥ (धत्ता) जै जै भव भंजन जन मन रंजन, दया धुरंधर कुमतिहरा वृन्दावन वंदत मन आनन्दित, दीजै आतम ज्ञान वरा ॥ ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
जो बांचे यह पाठ सरस संभव तनो सो पावे धनधान्य सरस सम्पति घनो ॥ सकल पाप छय जाय सुजस जग में बढ़े पूजत सुर पद होय अनुक्रम शिव चढ़े (इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)