भ्रम्यो जी भ्रम्यो, संसार महावन, सुख तो कबहुँ न पायो जी,पुद्गल जीव एक करि जान्यो, भेद-ज्ञान न सुहायोजी ॥टेक॥मनवचकाय जीव संहारे, झूठो वचन बनायो जी ।चोरी करके हरष बढ़ायो, विषयभोग गरवायो जी ॥भ्रम्यो जी भ्रम्यो, संसार महावन, सुख तो कबहुँ न पायो जी ॥१॥नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, साधारण वसि आयो जी ।गरभ जनम नरभव दुख देखे, देव मरत बिललायो जी ॥भ्रम्यो जी भ्रम्यो, संसार महावन, सुख तो कबहुँ न पायो जी ॥२॥'द्यानत' अब जिनवचन सुनै मैं, भवमल पाप बहायो जी ।आदिनाथ अरहन्त आदि गुरु, चरनकमल चित लायो जी ॥भ्रम्यो जी भ्रम्यो, संसार महावन, सुख तो कबहुँ न पायो जी ॥३॥
अर्थ : मैं इस संगाररूपी महावन में भटकता रहा हूँ । इसमें मुझे सुख कहीं भी नहीं मिला ।
मेरी भ्रान्ति यह ही रही कि मैंने जीव व पुद्गल दोनों को एक-अभिन्न (मिला हुआ) जाना, जिसके कारण मुझे इनके भिन्न-भिन्न अस्तित्व का भेदज्ञान ही नहीं हुआ, न ऐसा भेद करना मुझे रुचा ।
मन, वचन और काय से अनेक जीवों का घात किया, झूठ वचन बोला और उनका सहारा लिया । दूसरों की वस्तुओं को चुराकर प्रसन्न हुआ और इन्द्रिय-विषयों में रत रहा । उन्हें भोगकर घमण्ड से फूला रहा इसलिए कभी सुख नहीं पाया ।
बहुत बार नरक गति में छेदन-भेदन के दु:ख भोगे व अनेक बार साधारण शरीर में जन्म लिया । अनेक बार गर्भ व जन्म की वेदनाएँ भोगी । मनुष्य गति पाकर भी दुःख भोगे और फिर देवगति में मरण को समीप जानकर, देखकर भयातुर दयनीय दशा हो गई और दुःख से बिलबिलाने लगा ।
द्यानतराय कहते हैं कि मैंने अब श्री जिनेन्द्र के वचन सुने, उन पर श्रद्धान किया, उनकी ओर ध्यान केन्द्रित किया, तब बहुत से भवों में उपार्जित पापसमूह को मैंने नष्ट कर दिया, दूर किया । भगवान आदिनाथ, अरहन्त आदि देव व गुरु के चरण-कमल में अपना चित्त लगाया ।