कर कर आतमहित रे प्रानीजिन परिनामनि बंध होत है, सो परनति तज दुखदानी ॥टेक॥कौन पुरुष तुम कहाँ रहत हौ, किहिकी संगति रति मानी ।ये परजाय प्रगट पुद्गलमय, ते तैं क्यों अपनी जानी ॥१॥चेतनजोति झलक तुझमाहीं, अनुपम सो तैं विसरानी ।जाकी पटतर लगत आन नहिं, दीप रतन शशि सूरानी ॥२॥आपमें आप लखो अपनो पद, 'द्यानत' करि तन-मन-वानी ।परमेश्वरपद आप पाइये, यौं भाषैं केवलज्ञानी ॥३॥
अर्थ : अरे भले प्राणी, अपनी आत्मा का हित कर ले। जिन कषाययुक्त परिणामों के कारण संक्लेश होकर कर्मों का बंधन होता है वे सब दुःखदायी हैं, उनको छोड़ दो।
हे प्राणी ! जरा विचार करो - तुम कौन हो? कहाँ रहते हो? किसकी संगति तुमको रुचिकर लग रही है? किसका साथ तुमको भा रहा है? ये पर्यायें जो प्रकट में हैं वे सब स्पष्टत: तो पुद्गलजन्य हैं, तू चेतन उन्हें क्योंकर अपना मान रहा है?
हे प्राणी ! तुझमें चैतन्य का अनुपम प्रकाश / झलक दिखाई देता है, उसे तूने विस्मृत कर दिया, भुला दिया। चन्द्र, सूर्य, रत्नदीप या अन्य कोई भी उस चेतन-प्रकाश की समता / तुलना करने में समर्थ नहीं।
द्यानतराय कहते हैं कि हे प्राणी! मन, वचन और काय से अपने आपका स्वरूप-चिन्तन करो तो तुमको भी कैवल्य की उपलब्धि हो जायेगी। ऐसा केवलज्ञानी देवों ने स्वयं ने बताया है, कथन किया है।