भाई! ज्ञान का राह दुहेला रे ...मैं ही भगत बड़ा तपधारी, ममता गृह झकझेला रे ॥टेक॥मैं कविता सब कवि सिर ऊपर, बानी पुद्गल मेला रे ।मैं सब दानी मांगै सिर द्यौ, मिथ्याभाव सकेला रे ॥भाई! ज्ञान का राह दुहेला रे ॥१॥मृतक देह बस फिर तन आऊँ, मार जिवाऊं छेला रे ।आप जलाऊं फेर दिखाऊं, क्रोध लोभतैं खेला रे ॥भाई! ज्ञान का राह दुहेला रे ॥२॥वचन सिद्ध भाषै सोई ह्वै, प्रभुता वेलन वेला रे ।'द्यानत' चंचल चित पारा थिर, करै सुगुरु का चेला रे ॥भाई! ज्ञान का राह दुहेला रे ॥३॥
अर्थ : अरे भाई ! ज्ञान की राह / ज्ञान का मार्ग अत्यन्त कठिन लगता है कठिन होता है । कभी मैं भक्त बनता हूँ, कभी बहत तप करके तपस्वी बनता हूँ, फिर भी मोह-ममता-गृहस्थी के धक्के खाता रहता हूँ।
अपने को ज्ञानी बताने के लिए सब कवियों का सिरमौर / सरदार बनकर कविता करने लगता हूँ, पुद्गल शब्दों का मेला लगा लेता हूँ । जो-जो जैसा-जैसा माँगता है उसे वैसा-वैसा देकर मैं अपने को दानी समझता हूँ, इस प्रकार सब मिथ्याभाव करता हूँ ।
मरणशील देह में बसता हूँ / रहता हूँ और मरता हूँ और फिर किसी अन्य देह में पुन: आ जाता हूँ । अन्त तक (ज्ञानप्राप्ति तक) इसी प्रकार देह का मारना-जिलाना चलता रहता है । क्रोध-लोभ आदि कषायों में स्वयं जलता हूँ और सबको उन कषायों के खेल परिणाम दिखाता रहता हूँ ।
द्यानतरायजी कहते हैं कि हे जीव ! ज्ञानसिद्ध (जिसने ज्ञान प्राप्त कर लिया है वह) जो वचन कहता है वह (ही) सत्य है । तू भी ऐसी प्रभुता (ऐसा ज्ञान) पाने में देर मत कर । ज्ञान प्राप्ति के लिए तू पारे के समान चंचल अपने चित्त को स्थिर कर और सुगुरु (सत्गुरु) का चेला (शिष्य) बन जा ।