रे जिया! सील सदा दिढ़ राखि हिये ॥टेक॥जाप जपत तप तपत विविध विधि, सील बिना धिक्कार जिये ॥सील सहित दिन एक जीवनो, सेव करैं सुर अरघ दिये ।कोटि पूर्व थिति सील विहीना, नारकी दैं दुख वज्र लिये ॥रे जिया! सील सदा दिढ़ राखि हिये ॥१॥ले व्रत भंग करत जे प्रानी, अभिमानी मदपान पिये ।आपद पावै विघन बढ़ावैं, उर नहिं कछु लेखान किये ॥रे जिया! सील सदा दिढ़ राखि हिये ॥२॥सील समान न को हित जगमें, अहित न मैथुन सम गिनिये ।'द्यानत' रतन जतनसों गहिये, भवदुख दारिद-गन दहिये ॥रे जिया! सील सदा दिढ़ राखि हिये ॥३॥
अर्थ : हे जीव! तू हमेशा अपने हृदय में दृढ़ता से शील को धारण कर। भाँतिभाँति के जप और तप भी शील के बिना धिक्कारने योग्य है ।
जो जीव शीलसहित अल्प समय भी जीता है उस जीव की सब सेवा करते हैं, देवता भी उसको पूजा करते हैं, अर्घ चढ़ाते हैं। इसके विपरीत करोड़ों पूर्वो की स्थितिवाली आयु हो और वह शील रहित हो तो वह नरक पर्याय में वज्र धारण किए हुए नारकी की भाँति दारुण दुखदायी है।
जो अभिमानी मान के मद में चूर होकर व्रत भंग करता है वह आपदा पाता है, कष्ट बढ़ाता है। अपने मन में वह उसका तनिक भी लेखा-जोखा अर्थात् विचार नहीं करता ।
जगत में शील के समान कोई हितकारी नहीं है । मैथुन के समान दूसरा नाश करनेवाला नहीं है। द्यानतराय कहते हैं कि यह शील एक रत्न है। इसे बहुत सावधानीपूर्वक सँभालकर ग्रहण करो, जिससे भव-भव के दुख-दारिद्र का नाश हो जाए - दहन हो जाए।