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श्री
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अहो बनवासी पिया
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राग : काफी होरी

अहो बनवासी पिया तुम क्यों छारी अरज करै राजुल नारी ।
तुम तो परम दयाल सबन के, सबहिन के हितकारी ॥
अरज करै राजुल नारी ॥टेक॥

मो कठिन क्यों भये सजना, कहीये चूक हमारी ।
तुम बिन एक पलक पिया, मेरे जाय पहर सम भारी ।
क्यों करि निस दिन भर नेमजी, तुम तौ ममता डारी ॥
अरज करै राजुल नारी ॥१॥

जैसे रैनि वियोगज चकई तौ बिलपै निस सारी ।
आसि बांधि अपनी जिय राखै प्रात मिलयो या प्यारी ।
मैं निरास निरधार निरमोही जिउ किम दुख्यारी ॥
अरज करै राजुल नारी ॥२॥

अब ही भोग जोग हो बालम देखौ चित्त विचारी ।
आगै रिषभ देव भी ब्याही कच्छ-सुकच्छ कुमारी ।
सोही पंथ गहो पीया पाछै होज्यो संजम धारी ॥
अरज करै राजुल नारी ॥३॥

जैसे बिरहै नदी मैं व्याकुल उग्रसैन की बारी ।
धनि धनि समुदबिजै के नंदन बूढत पार उतारी ।
सो ही किरपा करौ हम उपरि 'भूधर' सरण तिहारी ॥
अरज करै राजुल नारी ॥४॥



अर्थ : हे भगवान नेमिनाथ! हे वनवासी पिया, तुमने मुझे क्यों छोड़ दिया? राजुल (नामकी नारी) आपसे यह अरज करती हैं ।
आप तो सभी जीवों के प्रति अत्यन्त दयालु हो, सबका हित करनेवाले हो फिर मेरी ओर हो इतने कठोर क्यों हो गए? कहिए .. क्या हमारी कोई चूक/गलती हो गई है ? हे प्रिय ! तुम्हारे बिना एकएक पल का समय भी एक-एक प्रहर के समान भारी/बड़ा लग रहा है, जैसेतैसे सत-दिन बीत रहे हैं ।
हे प्रियतम नेमिनाथ ! आपने तो सारी ममता छोड़ दी। चकवी अपने प्रिय के वियोग के कारण रातभर विलाप करती है और आशावान होकर अपने को ढाढस देती है कि सुबह होते ही उसका प्यारा चकवा उससे मिल जावेगा। राजुल जी कहती हैं - किन्तु मैं दुखियारी, निराश (जिसे मिलन की आशा नहीं दिखती), बिना सहारे, बिना प्रेम के किस प्रकार जीवनयापन करूँ?
हे प्रियतम ! भोग के स्थान पर आपने अभी ही योग धारण कर लिया! जरा चित्त में विचार तो कीजिए ! पूर्व में भगवान ऋषभदेव ने कच्छ व सुकच्छ की कुमारियों के साथ विवाह किया था और उसके पश्चात् ही संयमा धारणकर उस पंथ पर आरूढ़ हुए थे, चले थे।
हे प्रियतम ! आप भी वही मार्ग अपनाते । पहले विवाह करते फिर बाद में संयम धारण करते ! मैं उग्रसेन की पुत्री विरह की नदी में अत्यन्त व्याकुल हूँ।
आप, राजा समुद्रविजय के पुत्र, धन्य हैं, जो डूबते हुए जीवों को भवसागर के पार उतारते हैं। हमारे साथ भी कृपा करो। भूधरदास कहते हैं कि हम आपकी ही शरण में हैं।
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