जगत में सम्यक उत्तम भाईसम्यकसहित प्रधान नरक में, धिक शठ सुरगति पाई ॥टेक॥श्रावक-व्रत मुनिव्रत जे पालैं, जिन आतम लवलाई ।तिनतैं अधिक असंजमचारी, ममता बुधि अधिकाई ॥१॥पंच-परावर्तन तैं कीनें, बहुत बार दुखदाई ।लख चौरासी स्वांग धरि नाच्यौ, ज्ञानकला नहिं आई ॥२॥सम्यक बिन तिहुँ जग दुखदाई, जहँ भावै तहँ जाई ।'द्यानत' सम्यक आतम अनुभव, सद्गुरु सीख बताई ॥३॥
अर्थ : हे साधो ! जगत में सम्यक्त्व ही सर्वोत्तम है। सम्यक्त्वधारी नरक में भी हो तो भी ठीक और मूर्ख (मिथ्यादृष्टि) का देव बन जाना भी धिक्कार है ।
जिन्हें आत्मा के प्रति रुचि रहती है, होती है वे तो श्रावक के व्रतों व मुनि व्रतों का (अणुव्रत व महाव्रत का) पालन करते हैं; उनसे अधिक असंयम-सम्यक्त्वी हैं और उनसे विशेष अधिक वे हैं जो मोह और ममता से ग्रस्त हैं ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के परावर्तन पूरे करते हुए बहुतबार दुःख सहन किए हैं । चौरासी लाख योनियों में भाँति-भाँति के रूप-भव धारण किए हैं, फिर भी ज्ञान की कला नहीं समझ सके ।
सम्यक्त्व बिना सारा जगत दुःख देनेवाला है । सम्यक्त्व और संसार में तुम्हें जो भावे वहाँ ही जाओ अर्थात् वैसा ही स्वीकार करो । द्यानतराय कहते हैं कि सम्यक्त्व आत्मा का अनुभव हैं ; सत्गुरु ऐसी ही सीख देते हैं ।