तुम तरनतारन भवनिवारन, भविक-मनआनन्दनो ।श्रीनाभिनन्दन जगतवन्दन, आदिनाथ जिनिन्दनो ।तुम आदिनाथ अनादि सेऊं, सेय पद पूजा करों ।कैलाशगिरिपर ऋषभ जिनवर, चरणकमल हृदय धरों ॥१॥तुम अजितनाथ अजीत जीते, अष्टकर्म महाबली ।यह जानकर तुम शरण आयो, कृपा कीजे नाथ जी ।तुम चन्द्रवदन सुचन्द्रलक्षण, चन्द्रपुरिपरमेशजू ।महासेननन्दन जगतवंदन, चंद्रनाथ जिनेशजू ॥२॥तुम बालबोधविवेकसागर, भव्यकमलप्रकाशनो ।श्रीनेमिनाथ पवित्र दिनकर, पापतिमिर विनाशनो ।तुम तजी राजुल राजकन्या, कामसेन्या वश करी ।चारित्ररथ चढ़ि भये दूलह, जाय शिवसुन्दरि वरी ॥३॥इन्द्रादि जन्मस्थान जिनके, करन कनकाचल चढ़े ।गंधर्व देवन सुयश गाये, अपसरा मंगल पढ़े ॥इहि विधि सुरासर निज नियोगी, सकल सेवाविधि ठही ।ते पार्श्व प्रभु मो आस पूरो, चरनसेवक हों सही ॥४॥तुम ज्ञान रवि अज्ञानतमहर, सेवकन सुख देत हो ।मम कुमतिहारन सुमतिकारन, दुरित सब हर लेत हो ।तुम मोक्षदाता कर्मघाता, दीन जानि दया करो ।सिद्धार्थनन्दन जगतवन्दन, महावीर जिनेश्वरो॥५॥चौबीस तीर्थंकर सुजिनको, नमत सुरनर आयके ।मैं शरण आयो हर्ष पायो, जोर कर सिर नायके ॥तुम तरनतारन हो प्रभूजी, मोहि पार उतारियो ।मैं हीन दीन दयालु प्रभुजी, काज मेरो सारियो ॥6॥यह अतुलमहिमा सिन्धु साहब, शक्र पार न पावही ।तजि हासभय तुम दास 'भूधर', भक्तिवश यश गावही॥७॥
अर्थ : हे जगतवंद्य जिनेन्द्र ! श्री नाभिराय के सुपुत्र श्री आदिनाथ भगवान! आप भवसागर से पार उतारनेवाले, भव -भ्रमण को मिटानेवाले, भव्यजनों के मन को आनंदित करनेवाले हो। हे आदिनाथ ! आपकी सदैव वन्दना करूँ, आपके चरणकमलों की पूजा करूँ ।
कैलाशगिरि पर ऋषभजिनेन्द्र के स्थापित चरण-कमल को मैं अपने हृदयासन पर आसीन करूँ। हे अजितनाथ ! जो जीते न जा सकें ऐसे महाबलशाली आठ कर्मों को आपने जीत लिया - यह जानकर मैं आपकी शरण में आया हूँ । हे स्वामी मुझ पर कृपा कीजिए।
हे चन्द्रप्रभ! चन्द्रमा के समान शोभित, चन्द्रमा शुभ लांछन है जिनके ऐसे चन्द्रपुरी के नरेश महासेन के सुपुत्र चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! आप जगत के द्वारा वंदनीय हैं।
हे नेमिनाथ ! आप पापरूपी अंधकार का नाश करने के लिए पवित्र सूर्य हैं, आप अज्ञानियों को बोध कराने के लिए विवेक के सागर हैं और भव्यजनरूपी कमलदल के प्रकाशक हैं । आपने राजकुमारी राजुल (से विवाह) को छोड़कर, कामदेव की सेना को अपने वश में कर लिया और चारित्ररूपी रथ पर चढ़कर दूल्हा बन मोक्षरूपी सुन्दरी का वरण किया।
हे भगवान पार्श्वनाथ ! इन्द्रादि देव जिनेन्द्र के जन्म स्थान से जन्मोत्सव मनाने हेतु सुवर्ण के समान शोभित कनकाचल (सुमेरु पर्वत) पर चढ़े, गंधर्व देवों ने यश-गान किया और अप्सराओं ने मंगल-गान किया। इस प्रकार सुर असुर सभी ने मिलकर नियोगवश अपने-अपने योग्य कार्य संपन्न किये। हे पार्श्वनाथ ! मैं तो आपका चरण-सेवक हूँ, मेरी आशा पूरी करो।
हे जगतवंद्य सिद्धार्थसुत श्रीमहावीर जिनेश्वर ! आप अज्ञानरूपी अंधकार को नाश करनेवाले ज्ञानरूपी सूर्य हो, सेवकों को सुख देनेवाले हो, मेरी दुर्मति का नाश करनेवाले हो और सुमति के आधार हो, मुझे दीन जानकर ही मुझ पर दया करो।
हे चौबीसों जिनेश! आपको मनुष्य, देव आदि सभी आकर शीश झुकाते हैं। मैं भी आपकी शरण में आया हूँ । हाथ जोड़कर शीश नमाता हूँ। तुम तारनेवाले हो, मुझे भी इस भवसागर से पार उतारो। मैं शक्तिहीन हूँ, निर्धन हूँ, दीन हूँ। आप दयालु हैं, मेरे सर्व कार्य सिद्ध कीजिए।
हे भगवन् ! आप अतुल महिमा सागर हैं, महिमाधारी हैं। आपकी महिमा-गुणावली का पार इन्द्र भी नहीं पा सकते, तब मेरी सामर्थ्य कहाँ! भूधरदास कहते हैं, मैं लोक-हास्य का भय तजकर, भक्तिवश ही आपका यशगान करने को प्रेरित हुआ हूँ।