वंदों अद्भुत चन्द्र वीर जिन, भवि-चकोर-चितहारी ॥टेक॥सिद्धारथ-नृप-कुल-नभ-मंडन, खंडन भ्रमतम भारी ।परमानंद-जलधि-विस्तारन, पाप-ताप-छयकारी ॥वंदों अद्भुत चन्द्र वीर जिन, भवि-चकोर-चितहारी ॥१॥उदित निरंतर त्रिभुवन अंतर, कीरति किरण प्रसारी ।दोष-मलंक-कलंक अटंकित, मोहराहु निरवारी ॥वंदों अद्भुत चन्द्र वीर जिन, भवि-चकोर-चितहारी ॥२॥कर्मावरण पयोद अरोधित, बोधित शिवमगचारी ।गणधरादि मुनि उडुगन सेवत, नित पूनमतिथि धारी ॥वंदों अद्भुत चन्द्र वीर जिन, भवि-चकोर-चितहारी ॥३॥अखिल अलोकाकाशउलंघन, जास ज्ञान-उजयारी ।'दौलत' मनसाकुमुदनिमोदन, जयो चरम जगतारी ॥वंदों अद्भुत चन्द्र वीर जिन, भवि-चकोर-चितहारी ॥४॥
अर्थ : मैं उन अद्भुत चन्द्रमा के समान वीर जिनेन्द्र की वंदना करता हूँ, जो चकोर के समान भव्यजनों के चित्त को हरनेवाले हैं।
जो राजा सिद्धार्थ के कुलरूपी आकाश को सुशोभित करनेवाले व अज्ञानरूपी अंधकार का अत्यंत नाश करनेवाले हैं । वह परम आनंदरूपी समुद्र के समान विस्तृत हैं और पाप की तपन को नष्ट करनेवाले हैं।
जो तीन लोक में सदैव उदित हैं और जिनका यश किरणों की भाँति सर्वत्र फैल रहा है। जो पापरूपी मल-कलंक का बिना उकेरा हुआ ढेर हैं । आप उस मोहरूपी राहु का निवारण करनेवाले हैं।
जिनके कर्म-आवरणरूपी बादलों की बाधा दूर हो चुकी है, जिन्होंने मोक्षमार्ग पर बढ़नेवालों को निर्मल ज्ञानधारा का उपदेश दिया । जो पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान पूर्ण हैं, नित्य प्रकाशमान हैं, गणधर व मुनिरूपी तारे जिनकी आराधना करते हैं उन अद्भुत वीर जिनेन्द्ररूपी चन्द्र की वन्दना करता हूँ।
जिनके ज्ञान का उजाला अलोकाकाश को भी लाँघ रहा है। दौलतराम कहते हैं कि मनरूपी कुमुदिनी को विकसित करनेवाले, प्रफुल्लित व प्रमुदित करनेवाले, जगत से तारनेवाले हे चरमशरीरी, अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ! आपकी जय हो।