जय श्री वासुपूज्य तीर्थंकर सुर नर मुनि पूजित जिनदेव । ध्रुव स्वभाव निज का अवलंबन लेकर सिद्ध हुए स्वयमेव ॥ घाति अघाति कर्म सब नाशे तीर्थंकर द्वादशम् सुदेव । पूजन करता हूँ अनादि की मेटो प्रभु मिथ्यात्व कुटेव ॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
जल से तन बार-बार धोया पर शुचिता कभी नहीं आई । इस हाड़-मांस मय चर्म-देह का जन्म मरण अति दुखदाई ॥ त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव-बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
गुण शीतलता पाने को मैं चन्दन चर्चित करता आया । भव चक्र एक भी घटा नहीं संताप न कुछ कम हो पाया ॥ त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
मुक्ता सम उज्ज्वल तंदुल से नित देह पुष्ट करता आया । तन की जर्जरता रुकी नहीं भव-कष्ट व्यर्थ भरता आया ॥ त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
पुष्पों की सुरभि सुहाई प्रभु पर निज की सुरभि नहीं भाई । कंदर्प दर्प की चिरपीड़ा अबतक न शमन प्रभु हो पाई ॥ त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
घट रस मय विविध विविध व्यंजन जी भर-भर कर मैंने खाये । पर भूख तृप्त न हो पाई दुख क्षुधा-रोग के नित पाये ॥ त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा
दीपक निज ही प्रज्ज्वलित किये अन्तरतम अब तक मिटा नहीं । मोहान्धकार भी गया नहीं अज्ञान तिमिर भी हटा नहीं ॥ त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
शुभ अशुभ कर्म बन्धन भाया संवर का तत्त्व कभी न मिला । निर्जरित कर्म कैसे हो जब दुखमय आस्रव का द्वार खुला ॥ त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
भौतिक-सुख की इच्छाओं का मैनें अब तक सम्मान किया । निर्वाण मुक्ति फलपाने को मैंने न कभी निज-ध्यान किया ॥ त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
जब तक अनर्घ पद मिले नहीं तब तक मैं अर्घ चढ़ाऊँगा । निजपद मिलते ही हे स्वामी फिर कभी नहीं मैं आऊँगा ॥ त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारों गतियों के संकट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो ॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(पंचकल्याणक अर्घ्यावली) त्यागा महा शुक्र का वैभव, माँ विजया उर में आये । शुभ अषाढ़ कृष्ण षष्ठी को देवों ने मंगल गाये ॥ चम्पापुर नगरी की कर रचना, नव बारह योजन विस्तृत । वासुपूज्य के गर्भोत्सव पर हुए नगरवासी हर्षित ॥ ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्णाषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
फागुन कृष्णा चतुर्दशी को नाथ आपने जन्म लिया । नृप वसुपूज्य पिता हर्षाये भरतक्षेत्र को धन्य किया ॥ गिरि सुमेरु पर पाण्डुक वन में हुआ जन्म कल्याण महान । वासुपूज्य का क्षीरोदधि से हुआ दिव्य अभिषेक प्रधान ॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
फागुन कृष्णा चतुर्दशी को वन की ओर प्रयाण किया । लौकान्तिक देवर्षि सुरों ने आकर तप कल्याण किया ॥ तब नम: सिद्धेभ्य: कहकर प्रभु ने इच्छाओं का दमन किया । वासुपूज्य ने ध्यान लीन हो इच्छाओं का दमन किया ॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णाचतुर्दश्या तपोमंगल प्राप्ताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
माघ शुक्ल की दोज मनोरम प्रभु को केवलज्ञान हुआ । समवसरण में खिरी दिव्यध्वनि जीवों का कल्याण हुआ ॥ नाश किये घन घाति-कर्म सब केवलज्ञान प्रकाश हुआ । भव्यजनों के हृदय कमल का प्रभु से पूर्ण विकाश हुआ ॥ ॐ ह्रीं माघशुक्लाद्वितीयायां केवलज्ञान मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
अंतिम शुक्ल ध्यानधर प्रभु ने कर्म अधाति किये चकचूर । मुक्ति वधु के कंत हो गये योग मात्र कर निज से दूर ॥ भादव शुक्ला चतुर्दशी के दिन चम्पापुर से निर्वाण हुआ । मोक्ष लक्ष्मी वासुपूज्य ने पाई जय जय गान हुआ ॥ ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) वासुपूज्य विद्या निधि विध्न विनाशक वागीश्वर विश्वेश । विश्वविजेता विश्वज्योति विज्ञानी विश्वदेव विविधेश ॥ चम्पापुर के महाराज वसुपूज्य पिता विजया माता । तुमको पाकर धन्य हुए है वासुपूज्य मंगल दाता ॥
अष्ट वर्ष की अल्प आयु में तुमने अणुव्रत धार लिया । यौवन वय में ब्रह्मचर्य आजीवन अंगीकार किया ॥ पंच मुष्टि कचलोंच किया सब वस्त्राभूषण त्याग दिये । विमल भावना द्वादश भाई पंच महाव्रत ग्रहण किये ॥
स्वयं बुद्ध हो नमः सिद्ध कह पावन संयम अपनाया । मति, श्रुति, अवधि जन्म से था अब ज्ञान मनः पर्यय पाया ॥ एक वर्ष छद्मस्थ मौन रह आत्म साधना की तुमने । उग्र तपश्या के द्वारा ही कर्म निर्जरा की तुमने ॥
श्रेणीक्षपक चढ़े तुम स्वामी मोहनीय का नाश किया । पूर्ण अनन्त चतुष्टय पाया पद अरहंत महान लिया ॥ विचरण करके देश-देश में मोक्ष-मार्ग उपदेश दिया । जो स्वभाव का साधन साधे, सिद्ध बने, संदेश दिया ॥
प्रभु के छ्यासठ गणधर जिनमें प्रमुख श्रीमंदिर ऋषिवर । मुख्य आर्यिका वरसेना थीं नृपति स्वयंभू श्रोतावर ॥ प्रायश्चित व्युत्सर्ग विनय, वैयावृत स्वाध्याय अरुध्यान । अन्तरंग तप छह प्रकार का तुमने बतलाया भगवान ॥
कहा बाह्म तप छह प्रकार उनोदर कायक्लेश अनशन । रस परित्याग-सुव्रत परिसंख्या, विविक्त शैय्यासन पावन ॥ ये द्वादश तप जिन मुनियों को पालन करना बतलाया । अणुव्रत शिक्षाव्रत गुणव्रत द्वादशव्रत श्रावक का गाया ॥
चम्पापुर में हुए पंचकल्याण आपके मंगलमय । गर्भ, जन्य, तप ज्ञान, मोक्ष, कल्याण भव्यजन को सुखमय । परमपूज्य चम्पापुर की पावन भू को शत्-शत् वन्दन । वर्तमान चौबीसी के द्वादशम् जिनेश्वर नित्य नमन ॥
मैं अनादि से दुखी, मुझे भी निज-बल दो भववास हरूँ । निज-स्वरूप का अवलम्बन ले अष्टकर्म अरि नाश करूँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
महिष चिंह शोभित चरण, वासुपूज्य उर धार । मन-वच-तन जो पूजते वे होते भव पार॥ (इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)