चित्त! चेतन की यह विरियां रे ॥टेक॥उत्तम जनम सुतन तरूनापौ, सुकृत बेल फल फरियां रे ॥लहि सत-संगतिसौं सब समझी, करनी खोटी खरियां रे ।सुहित संभाल शिथिलता तजिदैं, जाहैं बेली झरियां रे ॥१॥दल बल चहल महल रूपेका, अर कंचनकी कलियां रे ।ऐसी विभव बढ़ी कै बढ़ि है, तेरी गरज क्या सरियां रे ॥२॥खोय न वीर विषय खल साटैं, ये क्रोड की घरियां रे ।तोरि न तनक तगा हित `भूधर' मुकताफलकी लरियां रे ॥३॥
अर्थ : हे चेतन ! जरा चिंतवन करो, यह मनुष्य जन्म एक सुअवसर है, समय है। सुनो, उत्तम जन्म पाया है, यौवन पाया है, जिसमें कुलीनवंश की सन्ततिरूप फल-फूल खिल रहे हैं। जब सयोग से सत्संगति मिली तब ही अपने किए के अच्छे-बुरे की समझ हुई। अपने हित के लिए गोष्ठी, प्रमाद व ढिलाई को तजते ही आत्मीयता के निर्झर फूटने लगते हैं ।
समाज, बल, आनंद, महल, सम्पति, रुपया, सोने की कलियाँ आदि सभी वैभव निरंतर बढ़ते जावें तो उससे तेरे किस प्रयोजन की सिद्धि होगी! हे वीर पुरुष! तू विषयरूपी खल के बदले करोड़ों रुपये के मूल्य का समय - अनमोल समय मनुष्य-जन्म मत खो अर्थात् दुष्ट विषयों के लिए अपने अनमोल बहुमूल्य समय को मत खो। भूधरदास कहते हैं कि तू धागे के लिए (धागा पाने के लिए) मोती की माला को मत तोड़।