आवै न भोगन में तोहि गिलान ॥टेक॥तीरथनाथ भोग तजि दीनें, तिनतैं मन भय आन ।तू तिनतैं कहुँ डरपत नाहीं, दीसत अति बलवान ॥१॥इन्द्रियतृप्ति काज तू भोगै, विषय महा अघखान ।सो जैसे घृतधारा डारै, पावकज्वाल बुझान ॥२॥जे सुख तो तीक्षन दुखदाई, ज्यों मधुलिप्त-कृपान ।तातें 'भागचन्द' इनको तजि आत्म स्वरूप पिछान ॥३॥
अर्थ : यह आश्चर्य है कि तुझे भोगों से ग्लानि नहीं हो रही है ।
जिन भोगों से तीर्थंकर भी डरते है और जिन्होंने उनको तज दिया, तू उनसे डरता नहीं है सो बड़ा बलवान लगता है ।
इन्द्रियों की तृप्ति के लिए तू पापों के घरस्वरूप पंचेंद्रियों के विषयों को भोगना चाहता है लेकिन यह तो अग्नि बुझाने के लिए घी डालने जैसा हुआ ।
तू जिसे सुख मान रहा है वह तो शहद लपेटी हुई तलवार को चखने के समान है, अति तीक्ष्ण है और दुखदाई है इसलिए कवि भागचन्द जी कहते हैं कि इन भोगों को तजकर आत्म स्वरूप पहिचानो अथवा वह भाग्यशाली है जो इन भोगों को तजकर आत्मस्वरूप को पहिचान लेता है ।