क्या तन मांझना रे, इक दिन मिट्टी में मिल जाना ।मिट्टी ओढ़न, मिट्टी बिछावन मिट्टी का सिरहाना ॥टेक॥ इस तन को तू रोज सजावे, खूब खिलावे खूब पिलावे ।निश दिन सेवा करके सुन्दर, सुन्दर वस्त्र पहनावे ॥अंत समय में साथ जाएगा, इस भ्रम में न आना ।क्या तन मांझना रे, इक दिन मिट्टी में मिल जाना ॥१॥काल अनंत गए अब तक बस इससे प्रीत करी है ।लेकिन इसमें महक रहे ज्ञायक की शरण न ली है ॥ये नहीं मुझमें, मैं नहीं इसमें, भेद विज्ञान जगाना ।क्या तन मांझना रे, इक दिन मिट्टी में मिल जाना ॥२॥इसी देह को छोड़ सिद्ध प्रभु ने शास्वत सुख पाया ।अपने में अपनापन करके निज वैभव प्रकटाया ॥नहीं तोड़ना इस तन को, बस इससे राग घटाना ।क्या तन मांझना रे, इक दिन मिट्टी में मिल जाना ॥३॥अब तो स्वानुभूति उर लाओ, ज्ञाता दृष्टा सिद्ध बन जाओ ।भेद-ज्ञान से सिद्ध हुए हैं, जीव अनन्तानन्त हुए है ॥भेद-ज्ञान बिन कभी न होता मिथ्या भ्रम छयकारा ।क्या तन मांझना रे, इक दिन मिट्टी में मिल जाना ॥४॥