जय श्री नेमीनाथ तीर्थंकर बाल ब्रह्मचारी भगवान । हे जिनराज परम उपकारी करुणा सागर दया निधान ॥ दिव्यध्वनि के द्वारा हे प्रभु तुमने किया जगत कल्याण । श्री गिरनार शिखर से पाया तुमने सिद्ध स्वरूप निर्वाण ॥ आज तुम्हारे दर्शन करके निज स्वरूप का आया ध्यान । मेरा सिद्ध समान सदा पद यह दृढ़ निश्चय हुआ महान ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
समकित जल की धारा से तो मिथ्याभ्रम धुल जाता है । तत्त्वों का श्रद्धान स्वयं को शाश्वत मंगल दाता है ॥ नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज की करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
सम्यक् श्रद्धा का पावन चन्दन भव-ताप मिटाता है । क्रोध-कषाय नष्ट होती है निज की अरुचि हटाता है ॥ नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज की करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
भाव शुभाशुभ का अभिमानी मान कषाय बढ़ाता है । वस्तु स्वभाव जान जाता तो मान-कषाय मिटाता है ॥ नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज की करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
चेतन छल से पर भावों का माया जाल बिछाता है । भव-भव की माया-कषाय को समकित पुष्प मिटाता है ॥ नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज की करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
तृष्णा की ज्वाला से लोभी कभी नहीं सुख पाता है । सम्यक् चरु से लोभ नाशकर यह शुचिमय हो जाता है ॥ नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज की करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा
अन्धकार अज्ञान जगत में भव-भव भ्रमण कराता है। समकित दीप प्रकाशित हो तो ज्ञान-नेत्र खुल जाता है ॥ नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज की करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
पर विभाव परिणति में फंसकर निज का धुआँ उड़ाता है । निज स्वरूप की गन्ध मिले तो पर की गन्ध जलाता है ॥ नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज की करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
निज स्वभाव फल पाकर चेतन महामोक्ष फल पाता है। चहुँगति के बंधन कटते हैं सिद्ध स्वरूप पा जाता है ॥ नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज की करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
जल फलादि वसु द्रव्य अर्थ से लाभ न कुछ हो पाता है । जब तक निज स्वभाव में चेतन मग्न नहीं हो जाता है ॥ नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज की करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(पंचकल्याणक अर्घ्यावली) कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन शिव देवी उर धन्य हुआ । अपराजित विमान से चयकर आये मोद अनन्य हुआ ॥ स्वप्न फलों को जान सभी के मन में अति आनन्द हुआ । नेमिनाथ स्वामी का गर्भोत्सव मंगल सम्पन्न हुआ ॥ ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाषष्ठ्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन शौर्यपुरी में जन्म हुआ । नृपति समुद्रविजय आँगन में सुर सुरपति का नृत्य हुआ ॥ मेरु सुदर्शन पर क्षीरोदधि जल से शुभ अभिषेक हुआ । जन्म महोत्सव नेमिनाथ का परम हर्ष अतिरेक हुआ ॥ ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा श्रावण शुक्ल षष्ठी को प्रभु पशुओं पर करुणा आई । राजमती तज सहस्त्राम्र वन में जा जिन दीक्षा पाई ॥ इंद्रादिक ने उठा पालकी हर्षित मंगलाचार किया । नेमिनाथ प्रभु के तपकत्याणक पर जय जयकार किया ॥ ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा आश्विन शुक्ला एकम को प्रभु हुआ ज्ञान कल्याण महान । उर्जयंत पर समवशरण में दिया भव्य उपदेश प्रधान ॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरणी, मोहनीय का नाश किया । नेमिनाथ ने अन्तराय क्षयकर कैवल्य प्रकाश लिया ॥ ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाप्रतिपदायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा श्री गिरनार क्षेत्र पर्वत से महामोक्ष पद को पाया । जगती ने आषाढ़ शुक्ल सप्तमी दिवस मंगल गाया ॥ वेदनीय अरु आयु नाम अरु गोत्र कर्म अवसान किया । अष्टकर्म हर नेमिनाथ ने परम पूर्ण निर्वाण लिया ॥ ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लासप्तम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) जय नेमिनाथ नित्योदित जिन, जय नित्यानन्द नित्य चिन्मय । जय निर्विकल्प निश्चल निर्मल, जय निर्विकार नीरज निर्भय ॥ नृपराज समुद्रविजय के सुत माता शिवा देवी के नन्दन । आनन्द शौर्यपुरी में छाया जय जय से गूँजा पाण्डुक वन ॥
बालकपन में क्रीड़ा करते तुमने धारे अणुव्रत सुखमय । द्वारिकापुरी में रहे अवस्था पाई सुन्दर यौवन वय ॥ आमोद-प्रमोद तुम्हारे लख पूरा यादवकुल हर्षाता । तब श्रीकृष्ण नारायण ने जूनागढ़ से जोड़ा नाता ॥
राजुल से परिणय करने को जूनागढ़ पहुँचे वर बनकर । जीवों की करुण पुकार सुनी जागा उर में वैराग्य प्रखर ॥ पशुओं को बन्धन मुक्त किया कंगन विवाह का तोड़ दिया । राजुल के द्वारे आकर भी स्वर्णिम रथ पीछे मोड़ लिया ॥
रथत्याग चढ़े गिरनारी पर जा पहुँचे सहस्त्राम्र वन में । वस्त्राभूषण सब त्याग दिये जिन दीक्षाधारी तनमन में ॥ फिर उग्र तपश्या के द्वारा निश्चय स्वरूप मर्मज्ञ हुए । घातिया कर्म चारों नाशे छप्पन दिन में सर्वज्ञ हुए ॥
तीर्थंकर प्रकृति उदय आई सुरहर्षित समवशरण रचकर । प्रभु गंधकुटि में अंतरीक्ष आसीन हुए पद्मासन धर ॥ ग्यारह गणधर में थे पहले गणधर वरदत्त महाऋर्षिवर । श्री मुख्य आर्यिका राजमती श्रोता थे अगणित भव्यप्रवर ॥
दिव्यध्वनि खिरने लगी शाश्वत ओंकार घन गर्जन सी । शुभ बारहसभा बनी अनुपम सौंदर्यप्रभा मणि कंचनसी ॥ जगजीवों का उपकार किया भव्यों को शिवपथ बतलाया । निश्चय रत्नत्रय की महिमा का परम मोक्षफल दर्शाया ॥
कर प्राप्त चतुर्दश गुणस्थान योगों का पूर्ण अभाव किया । कर उर्ध्वगमन सिद्धत्व प्राप्तकर सिद्धलोक आवास लिया ॥ गिरनार शैल से मुक्त हुए तन के परमाणु उड़े सारे । पावन मंगल निर्वाण हुआ सुरगण के गूंजे जयकारे ॥
नखकेश शेष थे देवों ने माया मय तन निर्माण किया । फिर अग्निकुमार सुरों ने आकर मुकुटानल से तन भस्म किया ॥ पावन भस्मि का निज-निज के मस्तक पर सब ने तिलक किया । मंगल वाद्यों की ध्वनि गूंजी निर्वाण महोत्सव पूर्ण किया ॥
कर्मों के बन्धन टूट गये पूर्णत्व प्राप्त कर सुखी हुए । हम तो अनादि से हे स्वामी भव दुख बंधन से दुखी हुए ॥ ऐसा अन्तरबल दो स्वामी हम भी सिद्धत्व प्राप्त करलें । तुम पद-चिन्हों पर चल प्रभुवर शुभ-अशुभ विभावों को हर लें ॥
ध्रुव भाव शुद्ध का अर्चनकर हम अन्तर्ध्यानी बन जावें । घातिया चार कर्मों को हर हम केवलज्ञानी बन जावें ॥ शाश्वत शिवपद पाने स्वामी हम पास तुम्हारे आ जायें । अपने स्वभाव के साधन से हम तीन लोक पर जय पायें ॥
निज सिद्ध स्वपद पाने को प्रभु हर्षित चरणों में आया हूँ । वसु द्रव्य सजाकर नेमीश्वर प्रभु पूर्ण अर्ध्य मैं लाया हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
शंख चिन्ह चरणों में शोभित जयजय नेमि जिनेश महान । मन वच तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते सिद्ध समान ॥ (इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)