आतम अनुभव करना रे भाईजब लौ भेद-ज्ञान नहीं उपजे, जनम मरण दुःख भरना रे ॥टेक॥आतम पढ़ नव तत्त्व बखाने, व्रत तप संजम धरना रे आतम ज्ञान बिना नहीं कारज, योनी संकट परना रे ॥१॥सकल ग्रन्थ दीपक है भाई मिथ्यातम के हरना रेका करे ते अंग पुरुष को जिन्हें उपजना मरना रे ॥२॥द्यानत जे भवि सुख चाहत है तिनको यह अनुसरना रे'सो sहं' ये दो अक्षर जप भवजल पार उतरना रे ॥३॥
अर्थ : अरे भाई! अपनी आत्मा का स्मरण करो, उसके चिंतन में लीन रहो, उसकी अनुभूति करो। जब तक भेद-ज्ञान (जीव व पुद्गल के स्वरूप का भेदरूप ज्ञान) नहीं हो तब तक जन्म और मरण की श्रृंखला चलती ही रहेगी, उसके दुःख होते ही रहेंगे।
आत्म-चिन्तन के लिए नवतत्व (जीव- पुद्गल और उनका एक- दूसरे की ओर आकर्षण-विकर्षण, उसके कारण होनेवाली आस्रव-बंध, संवर-निर्जरा की स्थितियाँ और तत्पश्चात् मोक्ष की स्थिति) - इन सबका विचार-चिन्तन करते हुए अणुव्रत, तप और संयम का पालन करो । आत्मज्ञान के बिना किया गया कोई कार्य मुक्ति की ओर अग्रसर नहीं करता। आत्मज्ञान के अभाव में भव-भव में. चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण होता ही रहेगा।
सारे ग्रन्थ दीपक के समान प्रकाशक हैं। उनका स्वाध्याय ज्ञानार्जन का साधन है जिससे मिथ्यात्व का अंधकार दूर होता है, मिटता है । वे अन्धे हैं जो उन ग्रन्थों में निहित ज्ञान का उपयोग नहीं करते. वे नियम से जन्म-मरण करते ही रहेंगे।
द्यानतराय कहते हैं कि हे भव्य! यदि तुम सुख चाहते हो तो इस क्रम का अनुसरण करो। मैं जो हूँ - सो मैं हूँ, ऐसे 'सोऽहं ' नाम के दो अक्षरों का जाप करके, हृदय में उसकी अनुभूति करके अपने में स्थिर होना ही इस संसार-समुद्र के पार होना है, अर्थात् मुक्ति का यही एकमात्र मार्ग है।