छहढाला
ढाल-1
पहली ढाल
पण्डित द्यानतरायजी कृत
ओंकार मंझार, पंच परम पद वसत हैं
तीन भुवन में सार, वन्दूँ मन वच काय कर ॥१॥
अक्षर ज्ञान न मोहि, छन्द-भेद समझूँ नहीं
मति थोड़ी किम होय, भाया अक्षर बावनी ॥२॥
आतम कठिन उपाय, पायो नर भव क्यों तजे
राई उदधि समाय, फिर ढूँढे नहिं पाइये ॥३॥
इह विध नर भव कोय, पाय विषय सुख में रमै
सो शठ अमृत खोय, हालाहल विष को पिये ॥४॥
ईश्वर भाखो येह, नर भव मत खोओ वृथा
फिर न मिलै यह देह, पछतावो बहु होयगो ॥५॥
उत्तम नर अवतार, पायो दुख कर जगत में
यह जिय सोच विचार, कुछ टोसा संग लीजिये ॥६॥
ऊरध गति को बीज, धर्म न जो मान आचरैं
मानुष योनि लहीज, कूप पड़े कर दीप ले ॥७॥
ऋषिवर के सुन बैन, सार मनुज सब योनि में
ज्यों मुख ऊपर नैन, भानु दिपै आकाश में ॥८॥
ढाल-2
दूसरी ढाल
रे जिय यह नरभव पाया, कुल जाति विमल तू आया
जो जैनधर्म नहिं धारा, सब लाभ विषयसंग हारा ॥१॥
लखि बात हृदय गह लीजे, जिनकथित धर्म नित कीजे
भव दुख सागर को वरिये, सुख से नवका ज्यों तरिये ॥२॥
ले सुधि न विषय रस भरिया, भ्रम मोह ने मोहित करिया
विधि ने जब दई घुमरिया, तब नरक भूमि तू परिया ॥३॥
अब नर कर धर्म अगाऊ, जब लों धन यौवन चाऊ
जब लों नहिं रोग सतावैं, तोहि काल न आवन पावै ॥४॥
ऐश्वर्य रु आश्रित नैना, जब लों तेरी दृष्टि फिरै ना
जब लों तेरी दृष्टि सवाई, कर धर्म अगाऊ भाई ॥५॥
ओस बिंदु त्यों योवन जैहे, कर धर्म जरा पुन यै है
ज्यों बूढो बैल थकै है, कछु कारज कर न सकै है ॥६॥
औ छिन संयोग वियोगा, छिन जीवन छिन मृत्यु रोगा
छिन में धन यौवन जावै, किस विधि जग में सुख पावै ॥७॥
अंबर धन जीवन येहा, गज-करण चपल धन देहा
तन दर्पण छाया जानो, यह बात सभी उर आनौ ॥८॥
ढाल-3
तीसरी ढाल
आ यम ले नित आयु, क्यों न धर्म सुनिजै
नयन तिमिर नित हीन, आसन यौवन छीजै ॥
कमला चले नहिं पैंड, मुख ढाकैं परिवारा
देह थकैं बहु पोष, क्यों न लखै संसारा ॥१॥
छिन नहिं छोड़े काल, जो पाताल सिधारै
वसे उदधि के बीच, जो बहु दूर पधारै ॥
गण-सुर राखै तोहि, राखै उदधि-मथैया
तोहु तजै नहिं काल, दीप पतंग ज्यों पड़िया ॥२॥
घर गौ सोना दान, मणि औषधि सब यों ही
यंत्र मंत्र कर तंत्र, काल मिटै नहिं क्यों ही ॥
नरक तनो दुख भूर, जो तू जीव सम्हारे
तो न रुचै आहार, अब सब परिग्रह डारैं ॥३॥
चेतन गर्भ मंझार, वसिके अति दुख पायो
बालपने को ख्याल, सब जग प्रगटहि गायो ॥
छिन में तन को सोच, छिन में विरह सतावै
छिन में इष्ट वियोग, तरुण कौन सुख पावैं ॥४॥
ढाल-4
चौथी ढाल
जरापने जो दुख सहे, सुन भाई रे
सो क्यों भूले तोहि, चेत सुन भाई रे
जो तू विषयों से लगा, सुन भाई रे
आतम सुधि नहिं तोहि, चेत सुन भाई रे ॥१॥
झूठ वचन अघ ऊपजै, सुन भाई रे
गर्भ बसो नवमास, चेत सुन भाई रे
सम धातु लहि पाप से, सुन भाई रे
अबहू पाप रताय, चेत सुन भाई रे ॥२॥
नहीं जरा गदआय है, सुन भाई रे
कहाँ गये यम यक्ष वे, सुन भाई रे
जे निश्चिन्तित हो रह्यो, सुन भाई रे
सो सब देख प्रत्यक्ष, चेत सुन भाई रे ॥३॥
टुक सुख को भवदधि पड़े, सुन भाई रे
पाप लहर दुखदाय, चेत सुन भाई रे
पकड़ो धर्म जहाज को, सुन भाई रे
सुख से पार करेय, सुन भाई रे ॥४॥
ठीक रहे धन सास्वतो, सुन भाई रे
होय न रोग न काल, चेत सुन भाई रे
उतम धर्म न छोड़िये, सुन भाई रे
धर्म कथित जिन धार, चेत सुन भाई रे ॥५॥
डरपत जो परलोक से, सुन भाई रे
चाहत शिव सुखसार, चेत सुन भाई रे
क्रोध लोभ विषयन तजो, सुन भाई रे
कोटि कटै अघजाल, चेत सुन भाई रे ॥६॥
ढील न कर आरम्भ तजो, सुन भाई रे
आरम्भ में जिय घात, चेत सुन भाई रे
जीवघात से अघ बढें, सुन भाई रे
अघ से नरक लहात, चेत सुन भाई रे ॥७॥
नरक आदि त्रैलोक्य में, सुन भाई रे
ये परभव दुख राशि, चेत सुन भाई रे
सो सब पूरब पाप से, सुन भाई रे
सबहि सहै बहु त्रास, चेत सुन भाई रे ॥८॥
ढाल-5
पाँचवीं ढाल
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥टेक॥
तिहूँ जग में सुर आदि दे जी, सो सुख दुर्लभ सार,
सुन्दरता मन-मोहनी जी, सो है धर्म विचार
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥१॥
थिरता यश सुख धर्म से जी, पावत रत्न भंडार,
धर्म बिना प्राणी लहै जी, दु:ख अनेक प्रकार
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥२॥
दान धर्म ते सुर लहै जी, नरक लहै कर पाप,
इह विधि नर जो क्यों पड़े जी, नरक विषैं तू आप
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥३॥
धर्म करत शोभा लहै जी, हय गय रथ वर साज,
प्रासुक दान प्रभाव ते जी, घर आवे मुनिराज
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥४॥
नवल सुभग मन मोहनाजी, पूजनीक जग मांहि,
रूप मधुर बच धर्म से जी, दुख कोई व्यापै नाहिं
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥५॥
परमारथ यह बात है जी, मुनि को समता सार,
विनय मूल विद्यातनी जी, धर्म दया सरदार
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥६॥
फिर सुन करुणा धर्ममय जी, गुरु कहिये निर्ग्रन्थ,
देव अठारह दोष बिन जी, यह श्रद्धा शिव-पंथ
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥७॥
बिन धन घर शोभा नहीं जी, दान बिना पुनि गेह,
जैसे विषयी तापसी जी, धर्म दिया बिन नेह
रे भाई अब तू धर्म सम्हार ॥८॥
ढाल-6
छठी ढाल
भोंदू धनहित अघ करे, अघ से धन नहिं होय
धरम करत धन पाइये, मन वच जानो सोय ॥१॥
मत जिय सोचे चिंतवै, होनहार सो होय
जो अक्षर विधना लिखे, ताहि न मेटे कोय ॥२॥
यद्यपि द्रव्य की चाह में, पैठै सागर मांहि
शैल चढ़े वश लाभ के, अधिको पावै नाहिं ॥३॥
रात-दिवस चिंता चिता, मांहि जले मत जीव
जो दीना सो पायगा, अधिक न मिलै सदीव ॥४॥
लागि धर्म जिन पूजिये, सत्य कहैं सब कोय
चित प्रभु चरण लगाइये, मनवांछित फल होय ॥५॥
वह गुरु हों मम संयमी, देव जैन हो सार
साधर्मी संगति मिलो, जब लों हो भव पार ॥६॥
शिव मारग जिन भाषियो, किंचित जानो सोय
अंत समाधी मरण करि,चहुँगति दुख क्षय होय ॥७॥
षट्विधि सम्यक् जो कहै, जिनवानी रुचि जास
सो धन सों धनवान है, जन में जीवन तास ॥८॥
सरधा हेतु हृदय धरै, पढ़ै सुनै दे कान
पाप कर्म सब नाश के, पावै पद निर्वाण ॥९॥
हित सों अर्थ बताइयो, सुथिर बिहारी दास
सत्रहसौ अठ्ठानवे, तेरस कार्तिक मास ॥१०॥
क्षय-उपशम बलसों कहै, द्यानत अक्षर येह
देख सुबोध पचासका, बुधिजन शुद्ध करेहु ॥११॥
त्रेपन क्रिया जो आदरै, मुनिगण विंशत आठ
हृदय धरैं अति चाव सो, जारैं वसु विधि काठ ॥१२॥
ज्ञानवान जैनी सबै, बसैं आगरे मांहि
साधर्मी संगति मिले, कोई मूरख नाहिं ॥१३॥