धनि मुनि जिनकी लगी लौ शिव ओरनै ।सम्यग्दर्शनज्ञानचरननिधि, धरत हरत भ्रमचोरनै ॥धनि॥यथाजातमुद्राजुत सुन्दर, सदन विजन गिरिकोरनै ।तृन-कंचन अरि-स्वजन गिनत सम, निंदन और निहोरनै ॥१ धनि॥भवसुख चाह सकल तजि वल सजि, करत द्विविध तप घोरनै ।परम विरागभाव पवितैं नित, चूरत करम कठोरनै ॥२ धनि॥छीन शरीर न हीन चिदानन, मोहत मोहझकोरनै ।जग-तप-हर भवि कुमुद निशाकर, मोदन 'दौल' चकोरनै ॥३ धनि॥
अर्थ : वे मुनि धन्य हैं जिनको मोक्ष की लगन लगी है । वे रत्नत्रय अर्थात् सम्यकदर्शन, ज्ञान और चारित्र रूपी निधि को धारण करते हैं जो संशयरुपी / भ्रमरूपी चोर को हरती है, उसका नाश कर देती है ।
जो सुंदर, नग्न दिगम्बर मुद्रा को धारण कर निर्जन पहाड़ों की कंदराओं में, कोनों में रहते हैं । जो तिनके और स्वर्ण में, शत्रु और आत्मियजनों में, निंदक और प्रशंसक में समान भाव रखते हैं, वे मुनि धन्य हैं ।
सब सांसारिक सुख की कामना छोड़कर , अपनी पूर्ण क्षमता के साथ आन्तरिक व बाह्य दोनों प्रकार से घोर, कठिन तप की साधना करते हैं । निरासक्त, वैराग्य भाव रूपी वज्र को धारण कर वे कठोर कर्मों को भी चूर कर देते हैं , नष्ट कर देते हैं , वे मुनि धन्य हैं ।
यद्यपि उनका शरीर क्षीण हो गया है अर्थात् काया कृश हो गई है , फिर भी आत्मिक दृष्टि से किसी प्रकार की निर्बलता नहीं है और वे मोह की प्रचंड वायु झकोरे को भी मोह लेते हैं, रोक लेते हैं , उसका प्रतिघात सह लेते हैं । ऐसे जगत का ताप हरनेवाले, कुमुद को विकसित करनेवाले, चंद्रमा के समान उन मुनि को देखकर चकोर की भांति दौलतराम का चित्त भी प्रसन्न हो जाता है, मुदित हो जाता है ।