ज्ञानी जीव-दया नित पालैं ।आरंभ परघात होत है, क्रोध पात निज टालें ॥टेक॥हिंसा त्यागि दयाल कहावै, जलै कषाय बदनमें ।बाहिर त्यागी अन्तर दागी, पहुँचै नरक सदन में ॥ज्ञानी जीव-दया नित पालैं ॥१॥करै दया कर आलस भावी, ताको कहिये पापी ।शांत सुभाव प्रमाद न जाकै, सो परमारथव्यापी ॥ज्ञानी जीव-दया नित पालैं ॥२॥शिथिलाचार निरुद्यम रहना, सहना बहु दुख भ्राता ।'द्यानत' बोलन डोलन जीमन, करें जतनसों ज्ञाता ॥ज्ञानी जीव-दया नित पालैं ॥३॥
अर्थ : ज्ञानी जीव सदैव दयालु होते हैं । आरम्भ (क्रिया) करने से परजीवों का घात होता है और क्रोध से स्वयं का घात होता है ।
ज्ञानी उन दोनों अवस्थाओं को टालते हैं, उनसे अपने को बचाते हैं (वे निजघात व परघात दोनों को टालते हैं)।
बाह्य में हिंसा छोड़ने पर दयालु कहे जाते हैं, परन्तु कषायों के कारण अंतरंग में वे जल रहे हैं। ऐसे बाहर से त्यागी दिखाई देनेवाले, अंतरंग में सब परिग्रहों को ढो रहे जीव नरकगामी होते हैं ।
दया करने में जिन्हें आलस्य आता है, उन्हें पापी कहा जाता है। परन्तु जो शांत स्वभावी हैं, अप्रमादी-प्रमादरहित है, सावधान हैं वे परमार्थ में लीन रहते हैं ।
अरे भाई ! शिथिलाचार और पुरुषार्थहीन बने रहना तो बहुत दुःखों का कारण है। द्यानतरायजी कहते हैं कि बोलने में, चलने में, भोजन में जो यत्नपूर्वक व्यवहार करता है, वह ही ज्ञानी है।