री! मेरे घट ज्ञान घनागम छायोशुद्ध भाव बादल मिल आये, सूरज मोह छिपायो ॥टेक॥अनहद घोर घोर गरजत है, भ्रम आताप मिटायो ।समता चपला चमकनि लागी, अनुभौ-सुख झर लायो ॥री! मेरे घट ज्ञान घनागम छायो ॥१॥सत्ता भूमि बीज समकितको, शिवपद खेत उपायो ।उद्धत भाव सरोवर दीसै, मोर सुमन हरषायो ॥री! मेरे घट ज्ञान घनागम छायो ॥२॥भव-प्रदेशतैं बहु दिन पीछैं, चेतन पिय घर आयो ।'द्यानत' सुमति कहै सखियनसों, यह पावस मोहि भायो ॥री! मेरे घट ज्ञान घनागम छायो ॥३॥
अर्थ : हे सखी ! मेरे अन्तर में ज्ञानरूपी बादल बहुत घनरूप में छा रहे हैं। शुद्ध भावरूपी बादलों का समूह इस प्रकार घुमड़कर घना हो रहा है कि उसने मोहरूपी सूर्य को ढँक दिया है।
अनहद की ध्वनि गुंजायमान हो रही हैं, भ्रम-संशय का ताप कम हो गया है। समतारूपी बिजलियाँ कौंधने लगी हैं और स्वानुभव के कारण सुख की झड़ी लग गयी है अर्थात् खूब आनन्द की अनुभूति हो रही हैं।
सत्ता (अस्तित्व)-रूपी भूमि में, सम्यक्त्वरूपी बीज बोकर मोक्षरूपो क्षेत्र को उपार्जित किया है। भावों का समुद्र अपने पूर्ण उफान पर है। मनरूपी मयूर हर्षित हो रहा है।
भव-भव में भटकने के पश्चात् बहुत समय बाद चेतन अपने स्व स्थान पर आया है अर्थात् अपने/स्व के ध्यान में मगन, तल्लीन हो रहा है । द्यानतराय कहते हैं कि सुमति अपनी सखियों से कह रही है कि यह (ज्ञान की) पावस ऋतु - वर्षाकाल मुझे अत्यन्त ही प्रिय लग रही है।