घटमें परमातम ध्याइये हो, परम धरम धनहेतममता बुद्धि निवारिये हो, टारिये भरम निकेत ॥टेक॥प्रथमहिं अशुचि निहारिये हो, सात धातुमय देह ।काल अनन्त सहे दुखजानैं, ताको तजो अब नेह ॥१॥ज्ञानावरनादिक जमरूपी, निजतैं भिन्न निहार ।रागादिक परनति लख न्यारी, न्यारो सुबुध विचार ॥२॥तहाँ शुद्ध आतम निरविकलप, ह्वै करि तिसको ध्यान ।अलप काल में घाति नसत हैं, उपजत केवलज्ञान ॥३॥चार अघाति नाशि शिव पहुँचे, विलसत सुख जु अनन्त ।सम्यकदरसन की यह महिमा, 'द्यानत' लह भव अन्त ॥४॥
अर्थ : हे जीव! परम धर्म अर्थात पूर्ण सुख रूपी धन को प्राप्त करने के लिये अपने आत्मा में विराजमान परमात्म स्वरूप का ध्यान करो पर द्रव्यों के प्रति ममत्व परिणाम को दूर हटाकर इस अनादि के भ्रम को टालो ।
जिस देह में अपनेपन के कारण अनन्त काल तक दुःख सहन किये सर्वप्रथम सप्त कुधातु में अर्थात् मल-मूत्र आदि का भंडार उस देह को अशुचि जानो और इसके प्रति मोह का त्याग करो।
ज्ञानावरण आदि आठ कर्म यम के समान हैं; इनसे अपने को भिन्न देखो और रागादि परिणामों को अपनी आत्मा से भिन्न अनुभव करो - यही ज्ञानियों का विचार है।
फिर निर्विकल्प शुद्ध आत्मा जो कि तेरा स्वरूप है उसका ध्यान करो जिसके ध्यान से अल्प काल में चार घाति कर्मों का नाश होता है और केवलज्ञान प्रगट होता है।
फिर चार अधाति कर्मों का नाश कर जीव मोक्ष पहुँच जाता है जहाँ अनन्त काल के लिये अनंत सुख का भोग ही होता है। द्यानतरायजी कहते हैं कि यह सब सम्यग्दर्शन की ही महिमा है जिससे संसार के दु:खों का अन्त होता है।