समझत क्यों नहिं वानी, अज्ञानी जनस्यादवाद अंकित सुखदायक, भाषी केवलज्ञानी ॥टेक॥जास लखें निरमल पद पावै, कुमति कुगतिकी हानी ।उदय भया जिहिमें परगासी, तिहि जानी सरधानी ॥१॥जामें देव धरम गुरु वरने, तीनौं मुकतिनिसानी ।निश्चय देव धरम गुरु आतम, जानत विरला प्रानी ॥२॥या जगमांहि तुझे तारनको, कारन नाव बखानी ।'द्यानत' सो गहिये निहचैसों, हूजे ज्यों शिवथानी ॥३॥
अर्थ : अरे अज्ञानी पुरुष! तू दिव्यध्वनि (जिनवाणी) को क्यों नहीं समझता है? वह जिनवाणी स्याद्वाद-सिद्धान्त से चिह्नित है (स्याद्वाद द्वारा पहचानी जाती है), सुखदायक है और केवलज्ञानी के द्वारा कही हुई है।
उस जिनवाणी को देख-समझकर प्राणी निर्मल पद को प्राप्त करता है और कुमति व कुगति दोनों को ही नष्ट करता है। जिसके अन्त:करण में ज्ञानरूप प्रकाश का प्रादुर्भाव होता है, उदय होता है उसके हृदय में श्रद्धान, आस्था दृढ़ होती है।
मुक्ति का मार्ग दिखाने व बतलानेवाले देव, शास्त्र व गुरु की महिमा जिस वाणी में कही गई है ऐसे देव, शास्त्र व गुरु के स्वरूप को कोई बिरला प्राणी ही अपनी आत्मा में अनुभव करता है, जानता है ।
इस भवसागर से पार उतारने हेतु यह जिनवाणी नाव के समान साधन है। द्यानतराय कहते हैं कि जो उस दिव्यध्वनि को निश्चय से अपनी आत्मा में ग्रहण करते हैं वे शिवसुख को पाते हैं, सिद्धशिला पर अपना स्थान पाते हैं ।