भवि देखि छबी भगवान की ।सुन्दर सहज सोम आनन्दमय, दाता परम कल्यान की ॥टेक॥नासादृष्टि मुदित मुखवारिज, सीमा सब उपमान की ।अंग अडोल अचल आसन दिढ़, वही दशा निज ध्यान की ॥भवि देखि छबी भगवान की ॥१॥इस जोगासन जोगरीतिसौं, सिद्धि भई शिवथान की ।ऐसें प्रगट दिखावै मारग, मुद्रा धात पखान की ॥भवि देखि छबी भगवान की ॥२॥जिस देखें देखन अभिलाषा, रहत न रंचक आन की ।तृपत होत 'भूधर' जो अब ये, अंजुलि अम्रतपान की ॥भवि देखि छबी भगवान की ॥३॥
अर्थ : ओह ! (आज) भगवान की भव्य छवि के दर्शन किए जो सुन्दर है, सहज है, सौम्य व आनन्दमय है तथा जो परम कल्याण की दाता (देनेवाली) है ।
भगवान की वह छवि प्रसत्र मुद्रायुक्त है, मुखकमल प्रफुल्लित है, नासा-दृष्टि है, वह सब उपमानों से अधिक श्रेष्ठ है उपमानों की चरम स्थिति है । वह छवि अडोल, स्थिर, अचल व दृढ़ आसन है यह ही तो निज-मग्न होने की स्थिति होती है।
इसी प्रकार के आसन से, योग-पद्धति से मोक्ष की उपलब्धि होती है। धातु और पाषाण की मूर्तियाँ उस मुद्रा (उस मार्ग) को प्रत्यक्ष बता रही हैं, दिखा रही हैं ।
जिसको देखने के पश्चात् किसी अन्य को देखने की अभिलाषा शेष नहीं रहती। भूधरदास कहते हैं कि ऐसे अमृत को अंजुलिपान करने से (दर्शन करने से) परम-तृप्ति का अनुभव होता है।