चेतन तूँ तिहुँ काल अकेला ,नदी नाव संजोग मिले ज्यों, त्यों कुटुम्ब का मेला ॥यह संसार असार रूप सब, ज्यों पटपेखन खेला ।सुख सम्पत्ति शरीर जल बुद बुद, विनशत नाहीं बेला ॥मोही मगन आतम गुन भूलत, पूरी तोही गल जेला ।मै-मै करत चहुंगति डोलत, बोलत जैसे छैला ॥कहत बनारसि मिथ्यामत तज, होय सुगुरु का चेला ।तास वचन परतीत आन जिय, होई सहज सुर झेला ॥
अर्थ : हे आत्मन् ! तू तीनों काल में अकेला है -- अपने स्वरूप को छोड़कर तेरा पर-वस्तु से किंचित् भी सम्बन्ध नहीं है, न हुआ है और न होगा । कुटुम्ब का सम्बन्ध तो नदी-नाव के संयोग की तरह है । न वह शास्वत् है और न उसमे अपनापन है ।
जिस प्रकार पटबीजने की क्रीड़ा असार और अनित्य है उसी प्रकार संसार का रूप भी अनित्य और असार है । संसार का सुख, वैभव और शरीर उसी प्रकार नाशवान हैं, जिस प्रकार जल का बबूला आँखों के देखते-देखते ही विलीन हो जाता है। आत्मन् ! तेरी इन वस्तुओं से तनिक भी आत्मीयता नहीं है । हे आत्मन् ! तू तीनों काल में अकेला है ।
हे आत्मन् । तुम मोह में मस्त होकर आत्म-गुणों को भूल रहे हो -- पर-वस्तुओं को अपनाकर उनमें तीव्रानुराग और आत्म-भाव कर रहे हो । इस भूल के कारण जो तुम भव-कारागृह में बन्दी हो, तुम्हें इसका तनिक भी बोध नहीं है । मोह के कारण आत्मन् ! तुम इसी प्रकार मैं-मैं करते हुए चतुर्गंति के दुख उठा रहे हो, जिस प्रकार बकरा मैं-मैं करता हुआ मिमियाता रहता है । हे आत्मन् ! तू तीनों काल में अकेला है ।
हे आत्मन् ! तुम मिथ्या-बुद्धि छोड़ दो और सद्गुरु की शरण में पहुँचो । अन्तस् में सुगुरु की वाणी पर ही प्रतीति करो । यही एक मार्ग है, जिसका अनुसरण कर सरलता पूर्वक भव-बाधा से मुक्ति मिल सकती है । हे आत्मन् ! तू तीनों काल में अकेला है ।