जय आदिनाथ जिनेन्द्र जय जय प्रथम जिन तीर्थंकरम् । जय नाभि सुत मरुदेवी नन्दन ऋषभप्रभु जगदीश्वरम् ॥ जय जयति त्रिभुवन तिलक चूड़ामणि वृषभ विश्वेश्वरम् । देवाधि देव जिनेश जय जय, महाप्रभु परमेश्वरम् ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सभिहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
समकित जल दो प्रभु आदि निर्मल भाव धरूँ । दुख जन्म मरण मिट जाय जल से धार करूँ ॥ जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
समकित चंदन दो नाथ भव संताप हरूँ । चरणों में मलय सुगन्ध हे प्रभु भेंट करूँ ॥ जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
समकित तंदुल की चाह मन में मोद भरे । अक्षत से पूजूँ देव अक्षय पद संवरे ॥ जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
समकित के पुष्प सुरम्य दे दो हे स्वामी । यह काम भाव मिट जाय हे अन्तर्यामी ॥ जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
समकित चरु करो प्रदान मेरी भूख मिटे । भव भव की तृष्णा ज्वाल उर से दूर हटे ॥ जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं निर्वपामीति स्वाहा
समकित दीपक की ज्योति मिथ्यातम भागे । देखूं निज सहज स्वरूप निज परिणति जागे ॥ जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
समकित की धूप अनूप कर्म विनाश करे । निज ध्यान अग्नि के बीच आठों कर्म जरे ॥ जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
समकित फल मोक्ष महान पाऊँ आदि प्रभो । हो जाऊँ सिद्ध समान सुखमय ऋषभ विभो ॥ जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय महामोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
वसु द्रव्य अर्घ जिनदेव चरणों में अर्पित । पाऊँ अनर्घपद नाथ अविकल सुख गर्भित ॥ जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥ ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(पंच कल्याणक) शुभ आषाढ़ कृष्ण द्वितीया को मरुदेवी उर में आये । देवों ने छह मास पूर्व से रत्न अयोध्या बरसाये ॥ कर्म भूमि के प्रथम जिनेश्वर तज सर्वार्थसिद्ध आये । जय जय ऋषभनाथ तीर्थंकर तीन लोक ने सुख पाये ॥ ॐ ह्रीं श्री आषढ़कृष्णद्वीतिया दिने गर्भमंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
चैत्र कृष्ण नवमी को राजा नाभिराय गृह जन्म लिया । इन्द्रादिक ने गिरि सुमेरु पर क्षीरोदधि अभिषेक किया ॥ नरक तिर्यञ्च सभी जीवों ने सुख अन्तर्मुहुर्त पाया । जय जय ऋषभनाथ तीर्थंकर जग में पूर्ण हर्ष छाया ॥ ॐ ह्रीं श्री चैत्रकृष्णनवमीदिने जन्ममंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
चैत्र कृष्ण नवमी को ही वैराग्य भाव उर छाया था । लौकान्तिक सुर इंद्रादिक ने तप कल्याण मनाया था ॥ पंच महाव्रत धारण करके पंच मुष्टि कच लोच किया । जय जय ऋषभनाथ तीर्थंकर तुमने मुनि पद धार लिया ॥ ॐ ह्रीं श्री चैत्रकृष्णनवमीदिने तपमंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
एकादशी कृष्ण फागुन को कर्म घातिया नष्ट हुए । केवलज्ञान आप कर स्वामी वीतराग भगवन्त हुए ॥ दर्शन, ज्ञान, अनन्तवीर्य, सुख पूर्ण चतुष्टय को पाया । जय प्रभु ऋषभदेव जगती ने समवशरण लख सुख पाया ॥ ॐ ह्रीं श्री फाल्गुनवदी एकादशीदिने ज्ञानमंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
माघ वदी की चतुर्दशी को गिरि कैलाश हुआ पावन । आठों कर्म विनाशे पया परम सिद्ध पद मन भावन ॥ मोक्ष लक्ष्मी पाई गिरि कैलाश शिखर निर्वाण हुआ । जय जय ऋषभनाथ तीर्थंकर भव्य मोक्ष कल्याण हुआ ॥ ॐ ह्रीं श्री माघवदी चतुर्दश्याम् महामोक्षमंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) जम्बूद्वीप सु भरतक्षेत्र में नगर अयोध्यापुरी विशाल । नाभिराय चौदहवें कुलकर के सुत मरुदेवी के लाल ॥ सोलह स्वप्न हुए माता को पंद्रह मास रत्न बरसे । तुम आये सर्वार्थसिद्धि से माता उर मंगल सरसे ॥
मतिश्रुत अवधिज्ञान के धारी जन्मे हुए जन्म कल्याण । इंद्र सुरों ने हर्षित हो पाण्डुक शिला किया अभिषेक महान ॥ राज्य अवस्था में तुमने जन जन के कष्ट मिटाये थे । असि, मसि कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या षट्कर्म सिखाये थे ॥
एक दिवस जब नृत्यलीन सुरि नीलांजना विलीन हुई । है पर्याय अनित्य आयु उसकी पल भर में क्षीण हुई ॥ तुमने वस्तु स्वरूप विचारा जागा उर वैराग्य अपार । कर चिंतवन भावना द्वादश त्यागा राज्य और परिवार ॥
लौकान्तिक देवों ने आकर किया आपका जय जयकार । आस्रव हेय जानकर तुमने लिया हृदय में संवर धार ॥ वन सिद्धार्थ गये वट तरु नीचे वस्त्रों को त्याग दिया । 'ऊँ नमः सिद्धेभ्यः' कहकर मौन हुए तप ग्रहण किया ॥
स्वयं बुद्ध बन कर्मभूमि में प्रथम सुजिन दीक्षा धारी । ज्ञान मनःपर्यय पाया धर पंच महाव्रत सुख कारी ॥ धन्य हस्तिनापुर के राजा श्रैयांस ने दान दिया । एक वर्ष पश्चात् इक्षुरस से तुमने पारणा किया ॥
एक सहस्त्र वर्ष तप कर प्रभु शुक्ल-ध्यान में हो तल्लीन । पाप-पुण्य आस्रव विनाश कर हुए आत्मरस में लवलीन ॥ चार-घातिया कर्म विनाशे पाया अनुपम केवलज्ञान । दिव्य-ध्वनि के द्वारा तुमने किया सकलजग का कल्याण ।
चौरासी गरणधर थे प्रभु के पहले वृषभसेन गणधर । मुख्य आर्यिका श्री ब्राम्ही श्रोता मुख्य भरत नृपवर ॥ भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में नाथ आपका हुआ विहार । धर्मचक्र का हुआ प्रवर्तन सुखी हुआ सारा संसार ॥
अष्टापद कैलाश धन्य हो गया तुम्हारा कर गुणगान । बने अयोगी कर्म अघातिया नाश किये पाया निर्वाण ॥ आज तुम्हारे दर्शन करके मेरे मन आनन्द हुआ । जीवन सफल हुआ है स्वामी नष्ट पाप दुख द्वंद्व हुआ ॥
यही प्रार्थना करता हूँ प्रभु उर में ज्ञान प्रकाश भरो । चारों गतियों के भव संकट का, हे जिनवर नाश करो ॥ तुम सम पद पा जाऊँ मैं भी यही भावना भाता हूँ । इसीलिए यह पूर्ण अर्घ चरणों में नाथ चढ़ाता हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री श्रीऋषभदेव जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
वृषभ चिन्ह शोभित चरण ऋषभदेव उर धार। मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ॥ (इत्याशीर्वाद)