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श्री
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राम भरतसों कहैं सुभाइ
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राग : गौरी, रघुपति राघव राजा राम

राम भरतसों कहैं सुभाइ, राज भोगवो थिर मन लाइ ॥टेक॥
सीता लीनी रावन घात, हम आये देखन को भ्रात ॥१॥
माता को कछु दुख मति देहु, घर में धरम करो धरि नेह ॥२॥
'द्यानत' दीच्छा लैंगे साथ, तात वचन पालो नरनाथ ॥३॥
राम भरतसों कहैं सुभाइ, राज भोगवो थिर मन लाइ ॥

कहैं भरतजी सुन हो राम! राज भोगसों मोहि न काम ॥
तब मैं पिता साथ मन किया, तात मात तुम करन न दिया ॥१॥
अब लौं बरस वृथा सब गये, मन के चिन्ते काज न भये ॥२॥
चिन्तै थे कब दीक्षा बनै, धनि तुम आये करने मनै ॥३॥
आप कहा था सब मैं करा, पिता करेकौं अब मन धरा ॥४॥
यों कहि दृढ़ वैराग्य प्रधान, उठ्यो भरत ज्यों भरत सुजान ॥५॥
दीक्षा लई सहस नृप साथ, करी पहुपवरषा सुरनाथ ॥६॥
तप कर मुकत भयो वर वीर, 'द्यानत' सेवक सुखकर धीर॥७॥



अर्थ : श्रीराम अपने छोटे भाई भरत से कहते हैं कि हे भाई! अपना चित्त स्थिर करके इस राज्य का भोग करो। हम तो भाई को (लक्ष्मण को) देखने को आए थे और रावण ने घात लगाकर सीताजो का हरण कर लिया। माता को कुछ भी, किसी प्रकार का दुःख न हो, उन्हें कष्ट न पहुँचे इसलिए तुम धैर्यपूर्वक घर में ही प्रेम से रहो। द्यानतराय कहते हैं कि राम ने भाई भरत को आश्वासन दिया कि हे राजन! हे भरत ! हम दीक्षा साथ लेंगे। इसलिए तुम अभी राज सम्हालो और माता के वचन का पालन करो।

दशरथ-पुत्र भारत अपने बड़े भाई श्रीराम से कहते हैं कि हे भाई! मुझे इस राज के भोगने से कोई वास्ता नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है। पहले भी जब पिता ने और मैंने एक साथ संन्यास धारण करने का मन बना लिया था तब पिताजी ने, आपने व माँ ने संन्यास धारण नहीं करने दिया। अब तक की बीती उम्र सब वृथा गई, जो मन में विचार किया उसे पूर्ण नहीं कर सके । सोचते थे कि कब दीक्षा की साध पूरी हो तो तुम उसे मना करने आ गए हो। आपने जो कहा था कि संन्यास धारण न करके राज्य करो, वह ही मैंने सब किया। अब मैंने पिताजी ने जो किया वह करने का (संन्यास धारण करने का) मन बनाया है । इस प्रकार यह कहते हुए वैराग्य में दृढ़ होकर भरत उठ खड़े हुए। अनेक राजाओं के साथ उन्होंने दीक्षा ग्रहण की, उस समय इन्द्र ने उन पर पुष्पवृष्टि की थी। तपस्या करके वे श्रेष्ठ वीर भरत मुक्त हुए, मोक्षगामी हुए। द्यानतराय कहते हैं कि ऐसे धैर्यवान भरत के सेवक होना सुखकारी है।
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