वर्धमान अतिवीर वीर प्रभु सन्मति महावीर स्वामी वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर अन्तिम तीर्थंकर नामी ॥ श्री अरिहंतदेव मंगलमय स्व-पर प्रकाशक गुणधामी सकल लोक के ज्ञाता-दृष्टा महापूज्य अन्तर्यामी ॥ महावीर शासन का पहला दिन श्रावण कृष्णा एकम शासन वीर जयन्ती आती है प्रतिवर्ष सुपावनतम ॥ विपुलाचल पर्वत पर प्रभु के समवशरण में मंगलकार खिरी दिव्यध्वनि शासन-वीर जयन्ती-पर्व हुआ साकार ॥ प्रभु चरणाम्बुज पूजन करने का आया उर में शुभ भाव सम्यग्ज्ञान प्रकाश मुझे दो, राग-द्वेष का करूँ अभाव ॥ ॐ ह्रीं श्री सन्मति वीरजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्री सन्मति वीरजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्री सन्मति वीरजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
भाग्यहीन नर रत्न स्वर्ण को जैसे प्राप्त नहीं करता ध्यानहीन मुनि निज आतम का त्यों अनुभवन नहीं करता ॥ शासन वीर जयन्ती पर जल चढ़ा वीर का ध्यान करूँ खिरी दिव्यध्वनि प्रथम देशना सुन अपना कल्याण करूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
विविध कल्पना उठती मन में, वे विकल्प कहलाते हैं बाह्य पदार्थो में ममत्व मन के संकल्प रुलाते हैं ॥ शासन वीर जयन्ती पर चंदन अर्पित कर ध्यान करूँ ॥खिरी.॥ ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीरजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
अंतरंग बहिरंग परिग्रह त्यागूँ मैं निर्ग्रन्थ बनूँ जीवन मरण, मित्र अरि सुख दुख लाभ हानि में साम्य बनूँ ॥ शासन वीर जयन्ती पर, कर अक्षत भेंट स्वध्यान करूँ ॥खिरी. ॥ ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
शुद्ध सिद्ध ज्ञानादि गुणों से मैं समृद्ध हूँ देह प्रमाण नित्य असंख्यप्रदेशी निर्मल हूँ अमूर्तिक महिमावान ॥ शासन वीर जयन्ती पर, कर भेंट पुष्प निज ध्यान करूँ खिरी दिव्यध्वनि प्रथम देशना सुन अपना कल्याण करूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
परम तेज हूँ परम ज्ञान हूँ परम पूर्ण हूँ ब्रह्म स्वरूप निरालम्ब हूँ निर्विकार हूँ निश्चय से मैं परम अनूप ॥ शासन वीर जयन्ती पर नैवेद्य चढ़ा निज ध्यान करूँ ॥खिरी. ॥ ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
स्व-पर प्रकाशक केवलज्ञानमयी, निजमूर्ति अमूर्ति महान चिदानन्द टंकोत्कीर्ण हूँ ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता भगवान ॥ शासन वीर जयन्ती पर मैं दीप चढ़ा निज ध्यान करूँ ॥खिरी. ॥ ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीरजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिक देहादिक नोकर्म विहीन भाव कर्म रागादिक से मैं पृथक् आत्मा ज्ञान प्रवीण ॥ शासन वीर जयन्ती पर मैं धूप चढ़ा निज ध्यान करूँ ॥खिरी. ॥ ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
कर्मल रहित शुद्ध ज्ञानमय, परममोक्ष है मेरा धाम भेदज्ञान की महाशक्ति से पाऊँगा अनन्त विश्राम ॥ शासन वीर जयन्ती पर मैं सुफल चढ़ा निज ध्यान करूँ ॥खिरी. ॥ ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
मात्र वासनाजन्य कल्पना है परद्रव्यों में सुखबुद्धि इन्द्रियजन्य सुखों के पीछे पाई किंचित् नहीं विशुद्धि ॥ शासन वीर जयन्ती पर मैं अर्घ्य चढ़ा निज ध्यान करूँ ॥खिरी. ॥ ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यंं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) विपुलाचल के गगन को, वन्दूँ बारम्बार सन्मति प्रभु की दिव्यध्वनि, जहाँ हुई साकार ॥१॥
महावीर प्रभु दीक्षा लेकर मौन हुए तप संयम धार परिषह उपसर्गो को जय कर देश-देश में किया विहार ॥ द्वादश वर्ष तपस्या करके ऋजुकूला सरितट आये क्षपकश्रेणी चढ़ शुक्ल ध्यान से कर्म घातिया विनसाये ॥
स्व-पर प्रकाशक परम ज्योतिमय प्रभु को केवलज्ञान हुआ इन्द्रादिक को समवशरण रच मन में हर्ष महान हुआ ॥ बारह सभा जुड़ीं अति सुन्दर, सबके मन का कमल खिला जनमानस को प्रभु की दिव्यध्वनि का, किन्तु न लाभ मिला ॥
छ्यासठ दिन तक रहे, मौन प्रभु दिव्यध्वनि का मिला न योग अपने आप स्वयं मिलता है, निमित्त-नैमित्तिक संयोग ॥ राजगृही के विपुलाचल पर प्रभु का समवशरण आया अवधिज्ञान से जान इन्द्र ने गणधर का अभाव पाया ॥
बड़ी युक्ति से इन्द्रभूति गौतम ब्राह्मण को वह लाया गौतम ने दीक्षा लेते ही ऋषि गणधर का पद पाया ॥ तत्क्षण खिरी दिव्यध्वनि प्रभु की द्वादशांगमय कल्याणी रच डाली अन्तरर्मुहूर्त में, गौतम ने श्री जिनवाणी ॥
सात शतक लघु और महाभाषा अष्टादश विविध प्रकार सब जीवों ने सुनी दिव्यध्वनि अपने उपादान अनुसार ॥ विपुलाचल पर समवशरण का हुआ आज के दिन विस्तार प्रभु की पावन वाणी सुनकर गूँजा नभ में जय-जयकार ॥
जन-जन में नव जागृति जागी मिटा जगत का हाहाकार जियो और जीने दो का जीवन संदेश हुआ साकार ॥ धर्म अहिंसा सत्य और अस्तेय मनुज जीवन का सार ब्रह्मचर्य अपरिग्रह से ही होगा जीव मात्र से प्यार ॥
घृणा पाप से करो सदा ही किन्तु नहीं पापी से द्वेष जीव मात्र को निज-सम समझो यही वीर का था उपदेश ॥ इन्द्रभूति गौतम ने गणधर बनकर गूँथी जिनवाणी इसके द्वारा परमात्मा बन सकता कोई भी प्राणी ॥
मेघ गर्जना करती श्री जिनवाणी का वह चला प्रवाह पाप ताप संताप नष्ट हो गये मोक्ष की जागी चाह ॥ प्रथमं, करणं, चरणं, द्रव्यं ये अनुयोग बताये चार निश्चय नय सत्यार्थ बताया, असत्यार्थ सारा व्यवहार ॥
तीन लोक षट् द्रव्यमयी है सात तत्त्व की श्रद्धा सार नव पदार्थ छह लेश्या जानो, पंच महाव्रत उत्तम धार ॥ समिति गुप्ति चारित्र पालकर तप संयम धारो अविकार परम शुद्ध निज आत्मतत्त्व, आश्रय से हो जाओ भव पार ॥
उस वाणी को मेरा वंदन उसकी महिमा अपरम्पार सदा वीर शासन की पावन, परम जयन्ती जय-जयकार ॥ वर्धमान अतिवीर वीर की पूजन का है हर्ष अपार काललब्धि प्रभु मेरी आई, शेष रहा थोड़ा संसार ॥ ॐ ह्रीं श्रीं सन्मतिवीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
दिव्यध्वनि प्रभु वीर की देती सौख्य अपार आत्मज्ञान की शक्ति से, खुले मोक्ष का द्वार ॥ (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)