सुन ज्ञानी प्राणी, श्रीगुरु सीख सयानी ।नरभव पाय विषय मति सेवो, ये दुरगति अगवानी ॥टेक॥यह भव कुल यह तेरी महिमा, फिर समझी जिनवाणी ।इस अवसर में यह चपलाई, कौन समझ उर आनी ॥१॥चन्दन काठ कनक के भाजन, भरि गंगा का पानी ।तिल खलि रांधत मंदमति जो, तुझ क्या रीस बिरानी ॥२॥'भूधर' जो कथनी सो करनी, यह बुधि है सुखदानी ।ज्यों मशालची आप न देखै, सो मति करै कहानी ॥३॥
अर्थ : हे ज्ञानी जीव! श्री गुरु की विवेकपूर्ण सीख को सुन। यह मनुष्य-जन्म पाकर विषयों में लिप्त मत हो, क्योंकि यह ही आगे होनेवाली दुर्गति का बीज है, कारण है।
तेरा यह मनुष्य भव, यह कुल, तेरी प्रतिष्ठा और जिनवाणी का बोध - इन सबका एकसाथ मिलना एक दुर्लभ अवसर है। इस सुअवसर में स्थिर न होकर चंचल होना यह तेरी कैसी समझदारी है?
चंदन की लकड़ी जलाकर सोने के बासन (बर्तन) में गंगा का पवित्र जल लेकर उसमें तिलहन की खल को कोई पकाने लगे, तो उस पराये मंदमति व्यक्ति पर क्रोधित होने से क्या होगा?
भूधरदास कहते हैं कि जिसके कहने व करने में अन्तर नहीं हो वह ही समझ सुखदायी है। कोई मशालची मशाल जलाकर भी स्वयं को न देख सके, तू भी अपनी वैसी ही स्थिति मत कर।