देखो भाई! आतमदेव बिराजै ॥टेक॥इसही हूठ हाथ देवलमैं, केवलरूपी राजै ॥अमल उजास जोतिमय जाकी, मुद्रा मंजुल छाजै ।मुनिजनपूज अचल अविनाशी, गुण बरनत बुधि लाजै ॥१॥परसंजोग समल प्रतिभासत, निज गुण मूल न त्याजै ।जैसे फटिक पखान हेतसों, श्याम अरुन दुति साजै ॥२॥'सोऽहं' पद समतासो ध्यावत, घटहीमैं प्रभु पाजै ।'भूधर' निकट निवास जासुको, गुरु बिन भरम न भाजै ॥३॥
अर्थ : हे भाई! आत्मारूपी देव विराज रहे हैं, उन्हें देखो। इस साढ़े तीन हाथ के कायारूपी मन्दिर में कैवल्यरूप धारण करनेवाली शुद्धात्मा सुशोभित है।
सर्वमलरहित, उज्ज्वल ज्योति से प्रकाशित उसकी सुन्दर छवि सुशोभित है। वह अचल और अविनाशी आत्मा मुनिजनों द्वारा पूजनीय है, उसके गुणों का वर्णन करते हुए यह बुद्धि भी लज्जित हो जाती है, हार जाती है। क्योंकि उसके गुण अपार हैं इसलिए उनका वर्णन नहीं किया जा सकता।
पारदर्शी स्फटिक पाषाण काले और लाल रंग की आभा के कारण उस रूप ही (काला और लाल) दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार पुद्गल के संयोग से यह निर्मल आत्मा मलसहित दिखाई पड़ता है। परन्तु मूल में उस की शुद्धता नष्ट नहीं होती।
सोऽहं' - 'वह मैं हूँ' इस पद का जो समतापूर्वक ध्यान करता है, वह अपने ही भीतर निजात्मा का दर्शन करता है । भूधरदास कहते हैं कि जो अपने में ही, अपने ही निकट रह रहा है, उसकी (उस आत्मा की) पहचान, उसके प्रति भ्रम-निवारण गुरु के उपदेश से ही हो सकता है अन्यथा नहीं।