मंगल आरती आतमराम, तनमंदिर मन उत्तम ठान ।समरस जलचंदन आनंद, तंदुल तत्त्वस्वरूप अमंद ॥१॥समयसारफूलन की माल, अनुभव-सुख नेवज भरि थाल ॥२॥दीपकज्ञान ध्यानकी धूप, निरमलभाव महाफलरूप ॥३॥सुगुण भविकजन इकरँगलीन, निहचै नवधा भक्ति प्रवीन ॥४॥धुनि उतसाह सु अनहद गान, परम समाधिनिरत परधान ॥५॥बाहिज आतमभाव बहावै, अंतर ह्वै परमातम ध्यावै ॥६॥साहब सेवकभेद मिटाय, 'द्यानत' एकमेक हो जाय ॥७॥
अर्थ : शुद्ध आत्मा की, निज आत्मा की आरती मंगलकारी है/मंगलदायी है। (इस तन में ) आत्मा के निवास करने के कारण यह तन एक मंदिर के समान (पूज्य है पवित्र) है, और मन उसके ठहरने का स्थान है। उसको (आत्मा की) पूजा के लिए समतारूपी भावना ही आनन्दकारी जल व चन्दन है। उसका तात्विक स्वरूप ही कभी भी मन्द न होनेवाला अक्षत/तन्दुल है । आत्मगुणों में रति ही उसकी पूजा के लिए पुष्पों की माल है और आत्मगुणों के अनुभव से उत्पन्न सुख ही नैवेद्य भरे थाल हैं। उसकी पूजा के लिए ज्ञान ही दीपक है और मन-वचन-काय की एकाग्रतारूप ध्यान ही धूप है। भावों का निर्मल हो जाना ही उसकी पूजा का परिणाम है फल है । भव्यजन उस आत्मा के गुणगान के रंग में लीन हो जाते हैं, रंग जाते हैं और प्रवीण / कुशल / ज्ञानीजन निश्चय से उसकी नवधा भक्ति में लीन हो जाते हैं। वे अन्तर से नि:सृत अनहद ध्वनि में उत्साहित होकर / निमग्न होकर परमसमाधि में लीन हो जाते हैं। फिर वे बाह्य जगत में करुणा से ओत-प्रोत होकर आत्मा के स्वभाव को प्रकाशित करते हैं, प्रसारित करते हैं (समझाते हैं) और अन्त:करण में अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को परमात्मस्वरूप को ध्याते हैं। ऐसा चिन्तन पूज्य-पूंजक भाव का मिटा देता है । द्यानतरायजी कहते हैं कि आत्मा के गुणों की वन्दना से आत्मा परमात्मा' हो जाता है।