मैं निज आतम कब ध्याऊंगारागादिक परिनाम त्यागकै, समतासौं लौ लाऊंगा ॥मन वच काय जोग थिर करकै, ज्ञान समाधि लगाऊंगा ।कब हौं क्षिपकश्रेणि चढ़ि ध्याऊं, चारित मोह नशाऊंगा ॥१॥चारों करम घातिया क्षय करि, परमातम पद पाऊंगा ।ज्ञान दरश सुख बल भंडारा, चार अघाति बहाऊंगा ॥२॥परम निरंजन सिद्ध शुद्धपद, परमानंद कहाऊंगा ।'द्यानत' यह सम्पति जब पाऊं, बहुरि न जग में आऊंगा ॥३॥
अर्थ : हे प्रभु! मैं कब अपनी आत्मा का ध्यान करूँगा! अर्थात वह शुभ घड़ी कब आएगी, जब मैं अपनी आत्मा का ध्यान करूँगा! कब राग-द्वेष आदि भावों का त्याग करके मैं समता में रुचि लाऊँगा!
हे भगवन् ! कब मैं मन, वचन और काय, इन तीनों के योग को स्थिर करके, ज्ञान की समाधि में लीन होऊँगा। और कब मैं कर्मों को क्षयकर क्षएक श्रेणी चढ़कर चारित्र मोहनीय की प्रकृतियों का नाश कर सकूँगा।
चारों घातिया कर्म नष्ट करके कत्र परम आत्मपद अर्थात् अरहंत अवस्था प्राप्तकर अनन्त दर्शन, ज्ञान, सुख व बल की स्थिति में शेष रहे चार अघातिया कर्मों का नाश करुंगा ।
कब वह शुभ समय आयेगा जब परम अर्थात् सर्व दोषरहित शुद्ध सिद्ध पद को प्राप्त कर परमानन्द की स्थिति में स्थित होऊँगा। द्यानतराय कहते हैं कि वह अवस्था प्राप्त होने पर मैं आवागमन से मुक्त हो जाऊँगा अर्थात् भव-भव के परिभ्रमण से छूट जाऊँगा।