हे नर, भ्रम-नींद क्यों न छाँड़त दुखदाई ।सोवत चिरकाल सोंज अपनी ठगाई ॥टेक॥मूरख अधकर्म कहा, भेदैं नहिं मर्म लहा ।लागे दुखज्वाला की न देह कै तताई ॥हे नर, भ्रम-नींद क्यों न छाँड़त दुखदाई ।जम के रव बाजते, सुभैरव अति गाजते ।अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न भाई ।हे नर, भ्रम-नींद क्यों न छाँड़त दुखदाई ॥परको अपनाय आप-रूप को भुलाय हाय ।करन-विषय-दारु जार, चाह दौं बढ़ाई ।हे नर, भ्रम-नींद क्यों न छाँड़त दुखदाई ॥अब सुन जिन-वानि, रागद्वेष को जघानि ।मोक्षरूप निज पिछान 'दौल', भज विरागताई ।हे नर, भ्रम-नींद क्यों न छोड़त दुखदाई ।सोवत चिरकाल सोंज आपनी ठगाई ॥
अर्थ : अरे मानव, तुम भ्रम-नींद क्यों नहीं छोड़ते? यह तो दुःख देनेवाली है, और तुम्हें मालूम नहीं, चिरकाल से यह नींद लेते-लेते तुम्हारा सामर्थ्य हर लिया गया है ! अरे मानव, तुम दुखदाई भ्रम-नींद क्यों नहीं छोड़ते ?
मूर्ख मानव पाप-कर्म और पुण्य-कर्म में न कोई भेद कर पाता है और न उसका मर्म ही उसकी समझ में आता है। परिणाम यह होता है कि इस अबोध मानव की पाप कर्म की ओर सदैव प्रवृत्ति बनी रहती है। और जब ये ही कर्म उदय में आकर उसे दुःख देते हैं और वह इन दुःखों की ज्वाला में झुलसता है तो इसे महान कष्ट होता है, इस पर भी इसकी भ्रम-नींद नहीं टूटती। कलाकार कहते हैं-रे मानव, इन दुःखों की ज्वाला से क्या तेरे शरीर में संताप नहीं होता, जो तू जरा भी अपनी निद्रा भंग नहीं कर रहा है ? अरे मानव, तुम भ्रम-नींद क्यों नहीं छोड़ते? यह तो दुःख देनेवाली है। तुम्हें मालूम नहीं, चिरकाल से यह नींद लेते-लेते तुम्हारा कितना घाटा हुआ है ।
यमराज के भयंकर बाजे बज रहे हैं। अनेक मनुष्य रोज-रोज मृत्यु के मुख में चले जा रहे हैं । अरे भाई, यह समाचार क्या तुझे सुनाई नहिं दे रहे हैं? जब तुम प्रतिदिन संसार की अनित्यता, अशरणता, अशुभता और दुःखशीलता के अनेकों उदाहरण देखते हो तो तुम्हें अब भी सावधान हो जाना चाहिए। अरे मानव, तुम भ्रम-नींद क्यों नहीं छोड़ते? यह तो दुःख देनेवाली है? तुम्हें मालूम नहीं, चिरकाल से यह नींद लेते-लेते तुम्हारा कितना घाटा हुआ है?
अरे मानव, तुमने अपना आत्म-रूप भुलाकर पर रूप से नाता जोड़ लिया और इतना ही नहीं, तुमने इन्द्रिय-विषयों का ईंधन जलाकर चाह की अग्नि को बेहद बढ़ा लिया। इतने पर भी तुम अपने को सुखी समझ रहे हो? अरे मानव, तुम भ्रम-नींद क्यों नहीं छोड़ते? यह तो दुःख देनेवाली है! तुम्हें मालूम नहीं, चिरकाल से नींद लेते-लेते तुम्हारा कितना घाटा हुआ है?
मानव, अब तुम्हारा कर्तव्य है कि यदि तुम पूर्ण सुखी होना चाहते हो तो जिन्होंने राग और द्वेष को जीत लिया है उन महान आत्मा जिन देव का उपदेश सुनो और अपने भीतर की कलुषित राग-द्वेष की कालिमा को स्वच्छ कर डालो। तुम अपनी आत्मा के स्वरूप को मोक्षमय, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रमय समझो तथा वीतरागता की ओर ही अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति करो। मानव, यह प्रवृत्ति ही तुम्हारी भ्रमनींद दूर कर आत्मा को चिर-जाग्रत और प्रतिबुद्ध बना देगी। अरे मानव, तुम भ्रमनींद क्यों नहीं छोड़ते? यह तो दुःख देनेवाली है। तुम्हें मालूम नहीं, चिरकाल से नींद लेते लेते तुम्हारा कितना घाटा हुआ है? मानव प्रतिदिन अपने आर्थिक घाटा और मुनाफा पर विचार करता है घाटा होने पर उसे दुःख होता है और मुनाफा होने पर हर्ष पर वस्तुत: यह आर्थिक मुनाफा भी घाटा ही है और इस प्रकार का घाटा है, जिस पर कोई भी चैतन्यशील मानव हर्ष नहीं कर सकता। लेकिन यह बात सबकी समझ में नहीं आ सकती। इसे यथार्थ में वे ही समझ सकते हैं जो भ्रम-नींद से जाग्रत हो चुके हैं। इसे यथार्थ में वे ही समझ सकते हैं जो भ्रम-नींद से जाग्रत हो चुके हैं। भ्रम नींद में निमग्न हैं, उनकी समझ में यह बात बिल्कुल नहीं आ सकती और ऐसे व्यक्तियों को ही कलाकार पंडित दौलतराम का यह जागरण सन्देश सुनाने की आवश्यकता है कि
"हे नर, भ्रम-नींद क्यों न छाँड़त दुखदाई?"