आदिनाथ तारन तरनं ।
नाभिराय मरुदेवी नन्दन, जनम अयोध्या अघहरनं ॥टेक॥
कलपवृच्छ गये जुगल दुखित भये, करमभूमि विधिसुखकरनं ।
अपछर नृत्य मृत्य लखि चेते, भव तन भोग जोग धरनं ॥
आदिनाथ तारन तरनं ॥१॥
कायोत्सर्ग छमास धर्यो दिढ़, वन खग मृग पूजत चरनं ।
धीरजधारी वरसअहारी, सहस वरस तप आचरनं ॥
आदिनाथ तारन तरनं ॥२॥
करम नासि परगासि ज्ञानको, सुरपति कियो समोसरनं ।
सब जन सुख दे शिवपुर पहुँचे, 'द्यानत' भवि तुम पद शरनं ॥
आदिनाथ तारन तरनं ॥3॥
अर्थ : हे भगवान आदिनाथ! आप स्व व पर को अर्थात् सबको तारनेवाले हैं। पापों का नाश करने के लिए आपका जन्म अयोध्या नगरी में नाभिराय व मरुदेवी के पुत्र के रूप में हुआ।
काल की गति व परिणमन के कारण कल्पवृक्ष लुप्त हो गए. इसमें जो जुगलिया उत्पन्न हुए वे दुःखी हो गए। तब आपने कर्मभूमि में जीवन-निर्वाह की सुखकारी विधि बताई / अप्सरा नीलांजना की नृत्य करते समय हुई मृत्यु को देखकर उससे वस्तु-स्वरूप को जानकर आपको संसार से वैराग्य हो गया और आप भव (संसार), तन व उसके भोग से विरक्त हो गए।
वन में जाकर छह माह का कायोत्सर्ग तप किया। तब वहाँ पशु-पक्षी सब आपके चरणों की वंदना करते थे। आप धैर्यवान थे । आपने एक वर्ष के अन्तराल पर आहार ग्रहण किया और सहस्र वर्षों तक तप-साधन किया।
कर्मों का नाशकर ज्ञान का प्रकाश किया अर्थात् केवलज्ञान प्रकट किया, तब इन्द्र ने समवसरण की रचना की । आप सभी भव्यजनों को अत्यन्त आनंदित करते हुए मोक्ष पधारे। द्यानतराय कहते हैं कि भव्यजन आपके चरणों की शरण ग्रहण करते हैं।