जो मोह माया मान मत्सर, मदन मर्दन-वीर हैं । जो विपुल विघ्नों बीच में भी, ध्यान-धारण-धीर हैं॥ जो तरण-तारण भव-निवारण, भव-जलधि के तीर हैं । वे वन्दनीय जिनेश, तीर्थंकर स्वयं महावीर हैं ॥ ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
जिनके गुणों का स्तवन पावन करन अम्लान है । मल हरन निर्मल करन भागीरथी नीर-समान है॥ संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में॥ ॐ ह्रीं श्री महावीर-जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
लिपटे रहें विषधर तदपि चन्दन विटप निर्विष रहे । त्यों शान्त शीतल ही रहो रिपु विघन कितने ही करें ॥ संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ॥ ॐ ह्रीं श्री महावीर-जिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
सुख-ज्ञान-दर्शन वीर जिन अक्षत समान अखंड हैं । हैं शान्त यद्यपि तदपि जो दिनकर समान प्रचण्ड हैं ॥ संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ॥ ॐ ह्रीं श्री महावीर-जिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा
त्रिभुवनजयी अविजित कुसुमशर-सुभट मारन सूर हैं । पर-गन्ध से विरहित तदपि निज-गन्ध से भरपूर हैं ॥ संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ॥ ॐ ह्रीं श्री महावीर-जिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
यदि भूख हो तो विविध व्यंजन मिष्ट इष्ट प्रतीत हों । तुम क्षुधा-बाधा रहित जिन! क्यों तुम्हें उनसे प्रीति हो ॥ संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ॥ ॐ ह्रीं श्री महावीर-जिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
युगपद्-विशद्-सकलार्थ झलके नित्य केवलज्ञान में । त्रैलोक्य-दीपक वीर-जिन दीपक चढ़ाऊँ क्या तुम्हें ॥ संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ॥ ॐ ह्रीं श्री महावीर-जिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
जो कर्म-ईंधन दहन पावक पुंज पवन समान हैं । जो हैं अमेय प्रमेय पूरण ज्ञेय ज्ञाता ज्ञान हैं ॥ संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ॥ ॐ ह्रीं श्री महावीर-जिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
सारा जगत फल भोगता नित पुण्य एवं पाप का । सब त्याग समरस-निरत जिनवर सफल जीवन आपका ॥ संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ॥ ॐ ह्रीं श्री महावीर-जिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
इस अर्घ्य का क्या मूल्य! अनर्घ्य पद के सामने । उस परम-पद को पा लिया हे! पतितपावन आपने ॥ संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ॥ ॐ ह्रीं श्री महावीर-जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(पंच-कल्याणक अर्घ्य)
(सोरठा छन्द) सित छटवीं आषाढ़, माँ त्रिशला के गर्भ में । अन्तिम गर्भावास, यही जान प्रणमूँ प्रभो ॥ ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्ल षष्ठ्यां गर्भमंगलमण्डिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
तेरस दिन सित चैत, अन्तिम जन्म लियो प्रभू । नृप सिद्धार्थ निकेत, इन्द्र आय उत्सव कियो ॥ ॐ ह्रीं चैत्रशुक्ल त्रयोदश्यां जन्ममंगलमण्डिताय श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
दशमी मंगसिर कृष्ण,वर्द्धमान दीक्षा धरी । कर्म कालिमा नष्ट, करने आत्मरथी बने ॥ ॐ ह्रीं मार्गशीर्ष-कृष्ण-दशम्यां तपोमंगलमण्डिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
सित दशमी वैसाख, पायो केवलज्ञान जिन । अष्ट द्रव्यमय अर्घ्य, प्रभुपद पूजा करें हम ॥ ॐ ह्रीं वैशाख-शुक्ल-दशम्यां ज्ञानमंगलमण्डिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
मतिज्ञान रहित सन्मति जिनेश, तुम राग-द्वेष जीते अशेष । शुभ-अशुभ राग की आग त्याग, हो गये स्वयं तुम वीतराग ॥
षट्द्रव्य और उनके विशेष, तुम जानत हो प्रभुवर अशेष । सर्वज्ञ वीतरागी जिनेश, जो तुम को पहिचानें विशेष ॥
वे पहिचानें अपना स्वभाव, वे करें मोह-रिपु का अभाव । वे प्रगट करें निज-पर-विवेक, वे ध्यावें निज शुद्धात्म एक ॥
निज आतम में ही रहें लीन, चारित्र-मोह को करें क्षीण । उनका हो जाये क्षीण राग, वे भी हो जायें वीतराग ॥
जो हुए आज तक अरीहन्त, सबने अपनाया यही पंथ । उपदेश दिया इस ही प्रकार, हो सबको मेरा नमस्कार ॥
जो तुमको नहिं जाने जिनेश, वे पायें भव-भव-भ्रमण क्लेश । वे माँगें तुमसे धन समाज, वैभव पुत्रादिक राज-काज ॥
जिनको तुम त्यागे तुच्छ जान, वे उन्हें मानते हैं महान । उनमें ही निशदिन रहें लीन, वे पुण्य-पाप में ही प्रवीन ॥
प्रभु पुण्य-पाप से पार आप, बिन पहिचाने पायें संताप । संतापहरण सुखकरण सार, शुद्धात्मस्वरूपी समयसार ॥
तुम समयसार हम समयसार, सम्पूर्ण आत्मा समयसार । जो पहिचानें अपना स्वरूप, वे हों जावें परमात्मरूप ॥
उनको ना कोर्इ रहे चाह, वे अपना लेवें मोक्ष राह । वे करें आत्मा को प्रसिद्ध, वे अल्पकाल में होयं सिद्ध ॥ ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
(दोहा) भूतकाल प्रभु आपका, वह मेरा वर्तमान । वर्तमान जो आपका, वह भविष्य मम जान॥ ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत् ॥