ऐसो श्रावक कुल तुम पाय, वृथा क्यों खोवत हो ॥टेक॥कठिन-कठिन कर नरभव भाई, तुम लेखी आसान ।धर्म विसारि विषय में राचौ, मानी न गुरु की आन ॥१॥चक्री एक मतंग जु पायो, तापर ईंधन ढोयो ।बिना विवेक बिना मति ही को, पाय सुधा पग धोयो ॥२॥काहू शठ चिन्तामणि पायो, मरम न जानो ताय ।बायस देखि उदधि में फैंकयो, फिर पीछे पछताय ॥३॥सात व्यसन आठों मद त्यागो, करुना चित्त विचारो ।तीन रतन हिरदे में धारो, आवागमन निवारो ॥४॥'भूधरदास' कहत भविजन सों, चेतन अब तो सम्हारो ।प्रभु को नाम तरन-तारन जपि, कर्म फन्द निरवारो ॥५॥
अर्थ : हे श्रावक ! तुमको ऐसा उत्तम श्रावक कुल मिला है, उसे तुम क्यों बेकार। निष्प्रयोजन ही खो रहे हो?
यह नरभव पाना अत्यन्त कठिन है, तुम इसे (पाना) इतना सहज समझ बैठे हो! गुरु की शिक्षा को नहीं मान रहे और धर्म को छोड़कर विषयों में रुचि लगा रहे हो! चक्रवर्ती होकर हाथी तो पाया, परन्तु उसका उपयोग ईंधन ढोने में किया।
इसी प्रकार बुद्धिहीन को अमृत मिला, उसने बिना विवेक, बिना बुद्धि के उसका उपयोग पग धोने में किया अर्थात् जो कुछ मिला उसका समुचित उपयोग नहीं किया।
जैसे किसी मूर्ख को चिन्तामणि रत्न मिला, परन्तु उसका महत्त्व नहीं जाना और कौवे को देखकर, उसे उड़ाने हेतु वह रत्न फेंक दिया, वह रत्न समुद्र में जा गिरा तो फिर पछताने लगा।
हे श्रावक ! सात व्यसन और आठ मद का त्याग करो / हृदय में करुणाभाव धारण करो। रत्नत्रय को हृदय में धारण करो अर्थात् रत्नत्रय का भावसहित निर्वाह कर जन्म-मरण से मुक्त हो।
भूधरदास भव्यजनों से कहते हैं कि अरे चेतन ! अब तो अपने को संभालो। प्रभु का नाम ही इस संसार समुद्र से तिराकर उद्धार करनेवाला है, उसको जपकर कर्म-जंजाल से मुक्त होवो।