(तर्ज :- नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे)हे परमात्मन तुझको पाकर, अब मुझको चिंता ही क्या ?अपना प्रभु निजमाहिं दिखाते, बाह्य जगत में देखूं क्या ? ॥टेक॥सहज ज्ञानमय, सहजानंदमय, परम शुद्ध शुद्धात्मा,परभावों से न्यारा निरुपम, शुद्ध बुद्ध परमात्मा,चिद् विलासमय, अपने घर से, अब मैं बाहर जाऊँ क्या ? ॥हे परमात्मन तुझको पाकर, अब मुझको चिंता ही क्या ? ॥१॥जग की सुनते मोह पुष्टकर, भव-भव में दे:ख पाया है,महाभाग्य जिनवाणी पाई, भेद-विज्ञान जगाया है,परमानंद निज में ही पाया, परभावों में जाऊँ क्या ? ॥हे परमात्मन तुझको पाकर, अब मुझको चिंता ही क्या ? ॥२॥परम ज्योतिमय सहज युक्त है, ध्येय रूप भगवान है,ज्ञानमात्र की अनेकांतमय, अद᳭भुत प्रभुतावान है,निज परमात्म को तजकर मैं, परभावों को ध्याऊँ क्या ? ॥हे परमात्मन तुझको पाकर, अब मुझको चिंता ही क्या ? ॥३॥कोलाहल निस्सार जान, परिणाम स्वयं ही शांत हुआ,होने योग्य सहज ही होवे, अब विकल्प कुछ नहीं रहा,सहजानंद विलासमयी निज, शुद्धातम ही भाऊँ सदा ॥हे परमात्मन तुझको पाकर, अब मुझको चिंता ही क्या ? अपना प्रभु निजमाहिं दिखाते, बाह्य जगत में देखूं क्या ? ॥४॥