चिदराय गुण मुनो सुनो, प्रशस्त गुरु गिरा ।समस्त तज विभाव हो, स्वभाव में थिरा ॥निज भाव के लखाव बिन, भवाब्धि में परा ।जामन मरन जरा त्रिदोष, अग्नि में जरा ॥फिर सादि औ अनादि दो, निगोद में परा ।जहँ अंक के असंख्य भाग, ज्ञान ऊवरा ॥तहँ भव अन्तरमुहूर्त के, कहे गणेश्वरा ।छ्यासठ सहस त्रिशत छत्तीस, जन्म धर मरा ॥यों बसि अनन्त काल फिर, तहाँ तें नीसरा ।भू जल अनिल अनल प्रतेक तरु में तन धरा ॥अनुधरीर कुन्थु कानमच्छ अवतरा ।जल थल खचर कुनर नरक, असुर उपज मरा ॥अबके सुथल सुकुल सुसंग, बोध लहि खरा ।'दौलत' त्रिरत्न साध, लाध पद अनुत्तरा ॥
अर्थ : हे जीव ! चैतन्यराज आत्मा के गुणों का मनन करो, सदूगुरु की मंगल वाणी सुनो और समस्त विभाव-भावों का त्याग करके अपने स्वभाव मे स्थिर हो जाओ; क्योंकि अपने स्वभाव के दर्शन बिना ही तुम संसार-सागर में पडे हो और जन्म-जरा-मरणरूपी त्रिदोष की अग्नि में जले हो ।
हे जीव ! तुम अपने स्वभाव के दर्शन बिना ही नित्यनिगोद और इतरनिगोद में रहे हो, जहाँ तुम्हार ज्ञान अक्षर के असंख्यातवें भाग रह गया था। तीर्थंकर कहते हैं कि वहाँ पर तुम एक अन्तर्मुहूर्त में 66,336 बार जन्म धारण करके मरे हो ।
हे जीव ! अनन्त काल निगोद में रहने के बाद जब तुम वहाँ से निकले तो तुमने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पति के स्थावर शरीरों को धारण किया। उसके बाद तुमने अनुद्धरी (दो-इन्द्रिय जीव), कुन्थु (तीन-इन्द्रिय जीव) और काणमच्छ (चार-इन्द्रिय जीव) के रूप में जन्म लिया तथा उसके भी बाद तुम जलचर, धलचर, नभचर के रूप में तिर्यच गति में, खोटी मनुष्य गति में, नरक गति में और असुर के रूप में देवगति में भी जन्म धारण कर-करके मरे हो ।
किन्तु हे जीव ! अब तुम्हें उत्तम क्षेत्र, उत्तम कुल, सत्संगति और सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई है, अतः अब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की साधना करके शीघ्र मोक्षपद की प्राप्ति करो ।