रे भाई! मोह महा दुखदाता ॥टेक॥वसत विरानी अपनी मानैं, विनसत होत असाता ॥जास मास जिस दिन छिन विरियाँ, जाको होसी घाता ।ताको राखन सकै न कोई, सुर नर नाग विख्याता ॥रे भाई! मोह महा दुखदाता ॥१॥सब जग मरत जात नित प्रति नहिं, राग बिना बिललाता ।बालक मरैं करै दुख धाय न, रुदन करै बहु माता ॥रे भाई! मोह महा दुखदाता ॥२॥मूसे हनें बिलाव दुखी नहिं, मुरग हनैं रिस खाता ।'द्यानत' मोह-मूल ममता को, नास करै सो ज्ञाता ॥रे भाई! मोह महा दुखदाता ॥३॥
अर्थ : अरे भाई! यह मोह महादु:ख देनेवाला है । पर वस्तु को अपनी मानता है और उसके नष्ट होने पर दु:खी होता है ।
जिस क्षण, जिस बेला में, जिस दिन, जिस मास में वह पर-वस्तु नष्ट होगी, उसे ख्याति प्राप्त देव, मनुष्य, नाग आदि भी बचाने में, रखने में समर्थ नहीं होते ।
सारा जगत नित्य प्रति मर रहा है, प्रतिक्षण कोई न कोई क्षय हो रहा है, मृत्यु को प्राप्त हो रहा है । परन्तु उनके प्रति राग / मोह नहीं होने से कष्ट अनुभव नहीं करता ।
जैसे बालक के मरने पर धाय (वेतन लेकर बच्चा पालनेवाली) को दु:ख नहीं होता, परन्तु माता बहुत रुदन करती है । चूहे को मारने पर बिलाव दुःखी नहीं होता, न मुर्गे को मारने पर नाराज होता है । द्यानतराय कहते हैं कि ममत्व का कारण है मोह, जो उस मोह को मूल से नष्ट करता है वह ही वास्तव में ज्ञाता है, ज्ञानी है ।