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ऐसा योगी क्यों न अभयपद
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ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भवमें आवै ॥

संशय विभ्रम मोह-विवर्जित, स्वपर स्वरूप लखावै
लख परमातम चेतन को पुनि, कर्मकलंक मिटावै ॥
ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै ॥१॥

भवतनभोगविरक्त होय तन, नग्न सुभेष बनावै
मोहविकार निवार निजातम-अनुभव में चित लावै ॥
ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै ॥२॥

त्रस-थावर-वध त्याग सदा, परमाद दशा छिटकावै
रागादिकवश झूठ न भाखै, तृणहु न अदत गहावै ॥
ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै ॥३॥

बाहिर नारि त्यागि अंतर, चिद्ब्रह्म सुलीन रहावै
परमाकिंचन धर्मसार सो, द्विविध प्रसंग बहावै ॥
ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै ॥४॥

पंच समिति त्रय गुप्ति पाल, व्यवहार-चरनमग धावै
निश्चय सकल कषाय रहित ह्वै, शुद्धातम थिर थावै ॥
ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै ॥५॥

कुंकुम पंक दास रिपु तृण मणि, व्याल माल सम भावै
आरत रौद्र कुध्यान विडारे, धर्म-शुकल को ध्यावै ॥
ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै ॥६॥

जाके सुखसमाज की महिमा, कहत इन्द्र अकुलावै
'दौल' तासपद होय दास सो, अविचलऋद्धि लहावै ॥
ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै ॥७॥



अर्थ : ऐसा योगी क्‍यों नहीं अभयपद (भयरहित पद-मोक्ष) पायेगा जिससे संसार में फिर उसका आवागमन नहीं होगा ।

जो संशय, विभ्रम और विमोह का नाशकर, अपना और अन्य के, स्व और पर के भेद-स्वरूप को स्पष्ट जाने व देखे। जो अपने परम आत्मरूप को पहचान-कर आत्मा पर लगे कर्मरूपी कलंक को मिटा दे, ऐसा योगी क्‍यों नहीं अभयपद पायेगा ? ॥१॥

संसारी अवस्था में जो देह मिली है, उसके विषयों से विरक्त होकर जो नग्न दिगम्बर मुनि हो जावे और मोहनीय कर्म के विकारों से रहित अपनी आत्मा (निजात्मा) का चिंतन करे; उसकी अनुभूति / प्रतीति करे, ऐसा योगी क्‍यों नहीं अभयपद पावेगा ? ॥२॥

जो प्रमाद को छोड़कर स्थावर (एकेन्द्रिय) और त्रस (दो से पंचेन्द्रिय) जीवों की हिंसा से सदा बचे । राग-द्वेष के कारण कभी झूठ न बोले और बिना दिया हुआ किसी का एक तिनका भी ग्रहण न करे, ऐसा योगी क्यों नहीं अभयपद पावेगा ? ॥३॥

जो बाह्य में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे अर्थात्‌ नारी- प्रसंग का त्याग करके अपने अन्तकरण से अपने चैतन्यगुणों में निमग्न होवे और पूर्णतया धर्म का साररूप अपरिग्रह (बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार परिग्रह-रहितता) का निर्वाह करे - पालन करे, ऐसा योगी क्यों नहीं अभयपद पावेगा? ॥४॥

जो पाँच समिति, तीन गुप्ति का पालन करते हुए आचरण का व्यवहाररूप पालन करे और फिर निश्चय से सभी कषायों को छोड़कर अपने शुद्ध आत्मध्यान में स्थिर हो, ऐसा योगी क्‍यों नहीं अभयपद पावेगा ? ॥५॥

केशर या कीचड़, शत्रु और नौकर, मणि हो या तिनका, साँप हो या माला, सब में समताभाव रखे। आर्त और रौद्र नाम के दोनों अपध्यान छोड़कर, धर्म और शुक्ल ध्यान को अपनावे, ऐसा योगी क्‍यों नहीं अभयपद पावेगा ? ॥६॥

उस अलौकिक सुख का अर्थात्‌ जिसकी बाह्य व आन्तरिक महिमा का वर्णन करने में इद्ध को भी आकुलता होती है अर्थात्‌ इन्द्र भी उनके गुणों को पूर्णरूपेण कह नहीं सकता - उनका वर्णन नहीं कर सकता। दौलतराम कहते हैं कि जो उनके चरणों की भक्ति करता है, सेवा करता है, वह स्थिररूप से ऋद्धियों को प्राप्त करता है, धारण करता है ॥७॥