प्रभु गुन गाय रै, यह औसर फेर न पाय रे ॥टेक॥मानुष भव जोग दुहेला, दुर्लभ सतसंगति मेला ।सब बात भली बन आई, अरहन्त भजौ रे भाई ॥१॥पहले चित-चीर संभारो कामादिक मैल उतारो ।फिर प्रीति फिटकरी दीजे, तब सुमरन रंग रंगीजे ॥२॥धन जोर भरा जो कूवा, परिवार बढ़ै क्या हूवा ।हाथी चढ़ि क्या कर लीया, प्रभु नाम बिना धिक जीया ॥३॥यह शिक्षा है व्यवहारी, निहचै की साधनहारी ।'भूधर' पैडी पग धरिये, तब चढ़ने को चित करिये ॥४॥
अर्थ : हे मनुष्य! प्रभु के गुण गाओ। मनुष्य भव का यह जो अवसर मिला है यह फिर नहीं मिलेगा। इस मनुष्य भव का मिलना बड़ा दुर्लभ योग है और फिर इसमें सत्संगति का मेल होना तो और भी दुर्लभ है ।
तुम्हें मनुष्य भव मिला, उत्तम संयोग व सत्संगति मिली, ये सब बातें अच्छी बन गई। अब तुम अरहंत के गुणों का चितवन करो, अरहंत का भजन करो। हे भाई! सबसे पहले अपने चित्तरूपी कपड़े को संभारो, वश में करो; उस पर कामादिक विषयों के जो रंग चढ़ रहे हैं, विषयों की रुचि हो रही है, उसे दूर करो फिर श्रद्धा-भक्तिरूपी फिटकरी से समस्त मैल हटाकर (चित्तरूपी कपड़े को) स्वच्छकर अरहंत के गुण-स्मरण के रंग से रंग दो, भिगो दो। यदि धन से कुऔं भर गया, परिवार की वृद्धि हो गई, तो उससे क्या प्राप्ति हुई? प्रतिष्ठा मिली, हाथी पर चढ़ लिया तो क्या कर लिया?
प्रभु का स्मरण नही किया, उनका गुण-चिंतवन नहीं किया तो जीवन ही धिक्कार है, हेय है। यह व्यावहारिक उपदेश है परन्तु निश्चय धर्म की साधना में सहायक है। भूधरदास कहते हैं कि निश्चय धर्म की ओर चढ़ने को जी करे तो इस पैड़ी पर पग धरिए अर्थात् इस व्यवहार का, प्रभु-गुणगान का पालन कीजिए।