आदिपुरुष मेरी आस भरो जी,अवगुन मेरे माफ करो जी ।दीनदयाल विरद विसरो जी, कै बिनती गोरी श्रवण धरों जी ॥टेक॥काल अनादि वस्यो जगमाँही, तुमसे जगपति जाने नाही ।पाय न पूजे अंतरजामी, यह अपराध क्षमाकर स्वामी ॥आदि.१॥भक्तिप्रसाद परम पद है है, बंधी बंधदशा मिटि जैहै ।तब न करो तेरी फिर पूजा, यह अपराध छमा प्रभु दूजा ॥आदि.२॥'भूधर' दोष किया बखावै, अरु आगैको लारें लावे ।देखो सेवक की ढिठवाई, गरुवे साहिबसौं बनियाई ॥आदि.३॥
अर्थ : हे आदिपुरुष ! मेरी आशा पूर्ति करो, मेरे अवगुणों की ओर ध्यान न दो, उन्हें क्षमा कर दो। हे दीनदयाल ! दोनों पर दया करनेवाले ! यह आपका गुण है, विशेषता है। या तो मेरी विनती सुनो या अपने इस विरद (विशेषता) को, गुण को भूल जाओ, छोड़ दो।
अनादिकाल से इस जगत में भ्रमण करता चला आ रहा हूँ पर आप-जैसे जगत्पति को मैं अब तक नहीं जान सका । हे सर्वज्ञ ! इसलिए मैंने कभी आपकी वन्दना-स्तुति नहीं की। यह मेरा अपराध हुआ। हे प्रभु ! इसके लिए मुझे क्षमा प्रदान करें ।
आपकी भक्ति के परिणामस्वरूप (फलरूप) परम पद मिलता है, मुक्ति की प्राप्ति होती है और कर्म-बन्ध की दशा (जो कर्म बंधे हुए हैं) भी मिट जाती है। जब भविष्य में मेरे सब कर्म मिट जायेंगे तो मैं फिर आपकी पूजा नहीं करूँगा क्योंकि मैं भी तो मुक्त हो जाऊँगा, तब वह मेरा दूसरा अपराध होगा ।
भूधरदास जी प्रार्थना करते हैं कि पूर्व में मेरे द्वारा किये गये दोषों को, गल्तियों को बख्श दो, माफ कर दो (अर्थात् मेरे अतीत को भूल जाएँ) और भविष्य को साथ लें अर्थात् भविष्य पर ध्यान करें। देखिए स्वामी - मुझ सेवक का यह कैसा ढोठपना है कि आप सरीखे महान स्वामी से भी मैं यह बनियागिरी की बात कर रहा हूँ ।