भजो आतमदेव, रे जिय! भजो आतमदेव, लहो शिवपद एव ॥टेक॥असंख्यात प्रदेश जाके, ज्ञान दरस अनन्त ।सुख अनन्त अनन्त वीरज, शुद्ध सिद्ध महन्त ॥रे जिय! भजो आतमदेव ॥१॥अमल अचलातुल अनाकुल, अमन अवच अदेह ।अजर अमर अखय अभय प्रभु, रहित-विकलप नेह ॥रे जिय! भजो आतमदेव ॥२॥क्रोध मद बल लोभ न्यारो, बंध मोख विहीन ।राग दोष विमोह नाहीं, चेतना गुणलीन ॥रे जिय! भजो आतमदेव ॥३॥वरण रस सुर गंध सपरस, नाहिं जामें होय ।लिंग मारगना नहीं, गुणथान नाहीं कोय ॥रे जिय! भजो आतमदेव ॥४॥ज्ञान दर्शन चरनरूपी, भेद सो व्योहार ।करम करना क्रिया निहचै, सो अभेद विचार ॥रे जिय! भजो आतमदेव ॥५॥आप जाने आप करके, आपमाहीं आप ।यही ब्योरा मिट गया तब, कहा पुन्यरु पाप ॥रे जिय! भजो आतमदेव ॥६॥है कहै है नहीं नाहीं, स्यादवाद प्रमान ।शुद्ध अनुभव समय 'द्यानत', करौ अमृतपान ॥रे जिय! भजो आतमदेव ॥७॥
अर्थ : अरे जिया। अपनी आत्मा का भजन करो । ऐसा करने से मोक्ष पद प्राप्त होवेगा ।
उस आत्मा को भजो जो लोक की भाँति असंख्यात प्रदेशी है । जिसके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख व अनन्त बल प्रगट हैं, जो सिद्ध-स्वरूप महान है ।
जो मल-रहित है, अचल (स्थिर) है, अतुल (तुलनारहित) है, आकुलता-रहित है, जिनके मन, वचन व काय नहीं है । जो रोग-रहित, मृत्यु-रहित, क्षय-रहित, भय-रहित तथा सभी विकल्पों से रहित है ।
उस आत्मा को भजो जो क्रोध, मान, माया, लोभ से न्यारा है, जिसके बंध-मोक्ष भी नहीं है । जिसके राग-द्वेष-मोह नहीं है, जो शुद्ध-चैतन्य है, जो अपने ही स्वाभाविक गुणों में लीन है, मगन है ।
उस आत्मा को भजो जिसके स्पर्श, रस, गंध, शब्द, वर्ण का स्पर्श भी नहीं है, न लिंग-भेद है, न मार्गणा है और न ही कोई गुणस्थान है ।
ज्ञान-दर्शन-चारित्र के भेद सब व्यवहार मात्र हैं, जो कुछ क्रिया है वह ही कर्म है, निश्चय से इनमें अभेद है इसका विचार कर ।
जब अपने आप में आप स्वयं ही कर्ता हो, स्वयं ही ज्ञाता हो, स्वयं को ही जाने । जब सब भेद समाप्त हो जाए तो पुण्य व पाप का पद कहाँ ठहरेगा?
तब वस्तु कथंचित् (किसी अपेक्षा विशेष से) है और कथंचित् (किसी अपेक्षा विशेष से) नहीं है, ऐसे स्याद्वाद का प्रमाण भी उसके लिए आवश्यक नहीं रहता। द्यानतराय कहते हैं कि अपनी शुद्ध-आत्मा का अनुभव ही शुद्ध है, उसी का अमृतपान कसे इसी में रत रहो ।