तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में करूँ नमन । अश्वसेन के राजदुलारे वामादेवी के नन्दन ॥ बाल ब्रह्मचारी भवतारी योगीश्वर जिनवर वन्दन । श्रद्धा भाव विनय से करता श्री चरणों का मैं अर्चन ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
समकित जल से तो अनादि की मिथ्याभ्रांति हटाऊँ मैं । निज अनुभव से जन्ममरण का अन्त सहज पा जाऊँ मैं ॥ चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं । संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर गुणगाऊँ मैं ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
तन की तपन मिटाने वाला चन्दन भेंट चढ़ाऊँ मैं । भव आताप मिटाने वाला समकित चन्दन पाऊँ मैं ॥ चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं । संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर गुणगाऊँ मैं ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय भवताप विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा
अक्षत चरण समर्पित करके निज स्वभाव में आऊं मैं । अनुपम शान्त निराकुल अक्षय अविनश्वर पद पाऊँ मै ॥ चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं । संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर गुणगाऊँ मैं ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
अष्ट अंगयुत सम्यक्दर्शन पाऊँ पुष्प चढ़ाऊँ मैं । कामबाण विध्वंस करूँ निजशील स्वभाव सजाऊं मैं ॥ चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं । संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर गुणगाऊँ मैं ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
इच्छाओं की भूख मिटानें सम्यक्पथ पर आऊँ मैं । समकित का नैवेद्य मिले जो क्षुधारोग हर पाऊँ मैं ॥ चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं । संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर गुणगाऊँ मैं ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
मिथ्यातम के नाश हेतु यह दीपक तुम्हें चढ़ाऊँ मैं । समकित दीप जले अन्तर में ज्ञानज्योति प्रगटाऊँ मैं ॥ चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं । संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर गुणगाऊँ मैं ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
समकित धूप मिले तो भगवन् शुद्ध भाव में आऊँ मैं । भाव शुभाशुभ धूम्र बने उड़ जायें धूप चढ़ाऊँ मैं ॥ चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं । संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर गुणगाऊँ मैं ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
उत्तमफल चरणों में अर्पित कर आत्मध्यान ही ध्याऊँ मैं । समकित का फल महा-मोक्ष-फल प्रभु अवश्य पा जाऊँ मैं ॥ चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं । संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर गुणगाऊँ मैं ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
अष्ट कर्म क्षय हेतु अष्ट द्रव्यों का अर्ध बनाऊँ मैं । अविनाशी अविकारी अष्टम वसुधापति बन जाऊ मैं ॥ चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं । संकटहारी मंगलकारी श्री जिनवर गुणगाऊँ मैं ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(पंचकल्याणक अर्घ्यावली) प्राणत स्वर्ग त्याग आये माता वामा के उर श्रीमान । कृष्ण दूज वैशाख सलोनी सोलह स्वप्न दिखे छविमान ॥ पन्द्रह मास रतन बरसे नित मंगलमयी गर्भ कल्याण । जय जय पार्श्वजिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जयजय दया निधान ॥ ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णाद्वितीयायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
पोष कृष्ण एकादशमी को जन्मे, हुआ जन्म कल्याण । ऐरावत गजेन्द्र पर आये तब सौधर्म इन्द्र ईशान ॥ गिरि सुमेरु पर क्षीरोदधि से किया दिव्य अभिषेक महान । जय जय पार्श्वजिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जयजय दया निधान ॥ ॐ ह्रीं पौषकृष्णा एकादश्यांजन्ममंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
बाल ब्रह्मचारी श्रुतधारी उर छाया वैराग्य प्रधान । लौकान्तिक देवों ने आकर किया आपका जय-जय गान ॥ पौष कृष्ण एकादशी को हुआ आपका तप कल्याण । जय-जय पार्श्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय-जय दया निधान ॥ ॐ ह्रीं पौषकृष्णा एकादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
कमठ जीव ने अहिक्षेत्र पर किया घोर उपसर्ग महान । हुए न विचलित शुक्ल ध्यानधर श्रेणी चढ़े हुए भगवान ॥ चैत्र कृष्ण की चौथ हो गई पावन प्रगटा केवलज्ञान । जय जय पार्श्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय-जय दया निधान ॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाचतुर्थ्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन बने अयोगी हे भगवान । अन्तिम शुक्ल ध्यानधर सम्मेदाचल से पाया निर्वाण ॥ कूट सुवर्णभद्र पर इन्द्रादिक ने किया मोक्ष कल्याण । जय-जय पार्श्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय-जय दया निधान ॥ ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) तेईसवें तीर्थंकर प्रभु परम ब्रह्ममय परम प्रधान । प्राप्त महा-कल्याण पंचक पार्श्वनाथ प्रणतेश्वर प्राण ॥ वाराणसी नगर अति सुन्दर अश्वसेन नृप परम उदार । ब्राह्मी देवी के घर जन्में जग में छाया हर्ष अपार ॥
मति श्रुति अवधि ज्ञान के धारी बाल ब्रह्मचारी त्रिभुवान । अल्प आयु में दीक्षा धरकर पंच महाव्रत धरे महान ॥ चार मास छद्मस्थ मौन रह वीतराग अर्हन्त हुए । आत्मध्यान के द्वारा प्रभु सर्वज्ञ देव भगवन्त हुए ॥
बैरी कमठ जीव ने तुमको नौ भव तक दुख पहुँचाया । इस भव में भी संवर सुर हो महा विध्न करने आया ॥ किया अग्निमय घोर उपद्रव भीषण झंझावात चला । जल प्लावित हो गई धरा पर ध्यान आपका नहीं हिला ॥
यक्षी पद्मावती यक्ष धरणेद्र विधा हरने आये । पूर्व जन्य के उपकारों से हो कृतन्न तत्क्षण आये ॥ प्रभु उपसर्ग निवारण के हित शुभ परिणाम हृदय छाये । फण मण्डप अरु सिंहासन रच जय-जय-जय प्रभु गुण गाये ॥
देव आपने साम्य भाव धर निज स्वरूप को प्रगटाया । उपसर्गों पर जय पाकर प्रभु निज कैवल्य स्वपद पाया ॥ कमठ जीव की माया विनशी वह भी चरणों में आया । समक्शरण रचकर देवों ने प्रभु का गौरव प्रगटाया ॥
जगत जनों को ॐकार ध्वनि मय प्रभु ने उपदेश दिया । शुद्ध बुद्ध भगवान आत्मा सबकी है संदेश दिया ॥ दश गणधर थे जिनमें पहले मुख्य स्वयंभू गणधर थे । मुख्य आर्यिका सुलोचना थी श्रोता महासेन वर थे ॥
जीव, अजीव, आस्रव, संवर बन्ध निर्जरा मोक्ष महान । ज्यों का त्यों श्रद्धान तत्त्व का सम्यक् दर्शन श्रेष्ठ प्रधान ॥ जीव तत्त्व तो उपादेय है, अरु अजीव तो है सब ज्ञेय । आस्रव बन्ध हेय हैं साधन संवर निर्जर मोक्ष उपेय ॥
सात तत्त्व ही पाप पुण्य मिल नव पदार्थ हो जाते हैं । तत्त्व-ज्ञान बिन जग के प्राणी भव-भव में दुख पाते हैं ॥ वस्तु-तत्त्व को जान स्वयं के आश्रय में जो आते हैं । आत्म चिंतवन करके वे ही श्रेष्ठ मोक्ष पद पाते हैं ॥
हे प्रभु! यह उपदेश आपका मैं निज अन्तर में लाऊँ । आत्म-बोध की महा-शक्ति से मैं निर्वाण स्वपद पाऊँ ॥ अष्ट-कर्म को नष्ट करूँ मैं तुम समान प्रभु बन जाऊँ । सिद्ध-शिला पर सदा विराजूं निज स्वभाव में मुस्काऊँ ॥
इसी भावना से प्रेरित हो हे प्रभु की है यह पूजन । तुव प्रसाद से एक दिवस मैं पा जाऊँगा मुक्ति सदन ॥ ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
सर्प चिन्ह शोभित चरण पार्श्वनाथ उर धार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ॥ (इत्याशिर्वादः ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत ॥)