वर्धमान अतिवीर वीर प्रभु सन्मति महावीर स्वामी वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर अन्तिम तीर्थंकर नामी ॥ श्री अरिहंतदेव मंगलमय स्व-पर प्रकाशक गुणधामी (छन्द- ताटंक) महाभक्ति से पूजा करता, क्षमामयी परमातम की । अन्तर्मुख हो कर भावना, क्षमा स्वभावी आतम की ॥ शुद्धातम- अनुभूति होते, ऐसी तृप्ति प्रगटाती । क्रोधादिक दुर्भावों की सब, सन्तति तत्क्षण विनशाती ॥
(छन्द-वीर) जिनवर का स्मरणमयी जल, मिथ्या मैल नशाता है । सम्यक्भाव प्रगट होते ही, मुक्तिद्वार खुल जाता है ॥ उत्तम क्षमा हृदय में वर्ते, सहज सदा ही ज्ञानमयी । मोह क्षोभ बिन शुद्ध परिणति, रहे प्रभो वैराग्यमयी ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
भाव स्तवनमय चन्दन ही, भवाताप विनशाता है । शीतल होती सहज परिणति, चित्त न फिर भटकाता है ॥ उत्तम क्षमा हृदय में वर्ते, सहज सदा ही ज्ञानमयी । मोह क्षोभ बिन शुद्ध परिणति, रहे प्रभो वैराग्यमयी ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
अक्षय वैभव अक्षय प्रभुता, अंतर माँहि दिखाती है । जिनवर सम ही क्षत् भावों से, सहज विभक्ति आती है ॥ उत्तम क्षमा हृदय में वर्ते, सहज सदा ही ज्ञानमयी । मोह क्षोभ बिन शुद्ध परिणति, रहे प्रभो वैराग्यमयी ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
समयसारमय सहज परिणति, नियमसार हो जाती है । कामवासना उस आनन्द से, सहजपने विनशाती है ॥ उत्तम क्षमा हृदय में वर्ते, सहज सदा ही ज्ञानमयी । मोह क्षोभ बिन शुद्ध परिणति, रहे प्रभो वैराग्यमयी ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
प्रभो आपके सन्मुख होते, ऐसी तृप्ति होती । नहीं भोगों की भूख सताती, अद्भुत तृप्ति होती है ॥ उत्तम क्षमा हृदय में वर्ते, सहज सदा ही ज्ञानमयी । मोह क्षोभ बिन शुद्ध परिणति, रहे प्रभो वैराग्यमयी ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा
सम्यग्ज्ञान प्रगट होते ही, सिद्ध समान स्वभाव दिखे । अनेकान्तमय तत्त्व दिखाता, मोह महातम सहज नशे ॥ उत्तम क्षमा हृदय में वर्ते, सहज सदा ही ज्ञानमयी । मोह क्षोभ बिन शुद्ध परिणति, रहे प्रभो वैराग्यमयी ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
भेदज्ञान की चिनगारी, वैराग्य भाव से सुलगाती । ध्यान अग्नि से सहजपने ही, कर्म कालिमा जल जाती ॥ उत्तम क्षमा हृदय में वर्ते, सहज सदा ही ज्ञानमयी । मोह क्षोभ बिन शुद्ध परिणति, रहे प्रभो वैराग्यमयी ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमाधर्माय अष्टकर्म विध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
आत्मलाभ से विषय सुखों का, लोभ सहज मिट जाता है । आत्मलीनता से बिन चाहे, मोक्ष महाफल आता है ॥ उत्तम क्षमा हृदय में वर्ते, सहज सदा ही ज्ञानमयी । मोह क्षोभ बिन शुद्ध परिणति, रहे प्रभो वैराग्यमयी ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा
भक्ति भाव से अर्घ्य चढ़ाऊँ, निज अनर्घ पद पाने को । पूजा करते भाव उमगता, निज में ही रम जाने को ॥ उत्तम क्षमा हृदय में वर्ते, सहज सदा ही ज्ञानमयी । मोह क्षोभ बिन शुद्ध परिणति, रहे प्रभो वैराग्यमयी ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
(जयमाला) (दोहा)
जयमाला गाते हुए, यही भाव सुखकार । दशलक्षणमय धर्म की, होवे जय जयकार ॥
तर्ज - हूँ स्वतंत्र निश्चल निष्काम… सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित, चारित्र हो रागादि रहित । यही भावना हे जिनवर, सफल होय मेरी सत्वर ॥ द्रव्य भाव से स्तुति कर, मैं भी अन्तर्मुख होकर । अहो आत्म में निज पर की, करूँ भावना सिद्धों की ॥ द्रव्य दृष्टि से सिद्ध समान, देखूं सबको ही भगवान । भिन्न लखूं औपाधिक भाव, सहज निहार ज्ञायक भाव ॥ होय मंगलाचरण तभी, परिणति ज्ञानानन्दमयी । भासे जिनशासन का मर्म, सहज प्रगट हो आतमधर्म ॥ परम साध्य का हो पुरुषार्थ, समय समय भाऊँ परमार्थ । दिखे न पर में इष्ट-अनिष्ट, नशें सहज क्रोधादिक दुष्ट ॥ सहज अहेतुक अरु स्वाधीन, नहीं परिणमन पर-आधीन । कोई किसी का कर्ता नाहिं, कहा जिनेश्वर आगम माहिं ॥ ज्ञानदृष्टि से सहज दिखाय, परमानन्द अहो उपजाय । होय निःशक्त अरु निरपेक्ष, ग्लानि मन में रहे न शेष ॥ हो निर्मूढ़ लगें निज माँहि, पर का दोष दिखे कुछ नाहिं । निज परिणति निज माँहि लगाय, परमप्रीति धर धर्म दिपाय ॥ संशय विभ्रम और विमोह, दोष ज्ञान में रहे न कोय । शुद्ध ज्ञान वर्ते निज माहिं, अष्ट अंग सहजहिं विलसाहिं ॥ पर से हो विरक्ति सुखदाय, संयम का पुरुषार्थ बढ़ाय । विषयारंभ परिग्रह टार, व्रत समिति गुप्ति उर धार ॥ हो निर्ग्रन्थ रमें निज माहिं, बाहर की किंचित् सुधि नाहिं । शुक्ल ध्यान से कर्म नशाय, अविनाशी शिव पद प्रगटाय ॥ यही भावना मन में धार, करके उत्तम तत्व विचार । क्षमा भाव सबके प्रति लाय, सब जीवों से क्षमा कराय ॥ अन्तर बाहर हो निर्ग्रन्थ, अपनाऊँ जिनवर का पंथ । जिनशासन वर्ते जयवंत, रत्नत्रय वर्ते जयवन्त ॥ क्षमा भाव अन्तर न समाय, वचनों में भी प्रगटे आय । सहज सदा वर्ते वात्सल्य, परिणति होवे सहज निःशल्य ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्माय अनर्घ्य पद प्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा
(दोहा) दोष दृष्टि को छोड़कर, गुण ग्रहण का भाव । रहे सदा ही चित्त में, ध्याऊँ सहज स्वभाव ॥ (पुष्पांजलि क्षिपामि)