दर्शन-स्तुति
पं. दौलतरामजी कृत
सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन
सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि-रज-रहस विहीन ॥
अन्वयार्थ : सम्पूर्ण पदार्थों के जानने वाले होने पर भी जो अपनी आत्मा के आनन्द रूपी रस में लीन रहते हैं तथा जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों से रहित हैं, वे जिनेन्द्र भगवान हमेशा जयवंत हों।
जय वीतराग-विज्ञानपूर, जय मोहतिमिर को हरन सूर
जय ज्ञान अनंतानंत धार, दृग-सुख-वीरजमण्डित अपार ॥१॥
अन्वयार्थ : जो रागद्वेष से रहित हैं, विशिष्ट ज्ञान से पूर्ण हैं, मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिये सूर्य के समान हैं, जो अनन्तानन्त ज्ञान को धारण किये हैं और अनंतदर्शन, अनंतसुख व अनंतवीर्य से सुशोभित हैं। उन प्रभु की जय हो।
जय परमशांत मुद्रा समेत, भविजन को निज अनुभूति हेत
भवि भागन वचजोगे वशाय, तुम धुनि ह्वै सुनि विभ्रम नशाय ॥२॥
अन्वयार्थ : जो अत्यन्त शांत मुद्रा से सहित हैं, उनकी जय हो । भव्य जीवों को अपनी आत्मा का ज्ञान कराने में कारण हैं। भव्य जीवों के भाग्य से और वचन योग के निमित्त से जिनकी दिव्य ध्वनि होती है। जिसको सुनकर जीवों का मोह नष्ट हो जाता है।
तुम गुण चिंतत निज-पर विवेक, -प्रकटै विघटैं आपद अनेक
तुम जगभूषण दूषण-विमुक्त, सब महिमा-युक्त विकल्प-मुक्त ॥३॥
अन्वयार्थ : आपके गुणों का चिन्तवन करने से स्व-पर का ज्ञान प्रकट होता है और अनेक प्रकार की आपत्तियाँ नष्ट होती हैं। आप संसार के आभूषण स्वरूप हैं, दोषों से रहित हैं और सभी प्रकार की महिमा से युक्त, रागादिक परिणामों से रहित हैं।
अविरुद्ध शुद्ध चेतन स्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप
शुभ-अशुभ विभाव अभाव कीन, स्वाभाविक परिणतिमय अक्षीण ॥४॥
अन्वयार्थ : हे भगवान् ! आप विरोध से रहित शुद्ध चैतन्य स्वरूप हैं, अत्यन्त पावन परमात्म रूप हैं, अनुपम हैं, शुभ-अशुभ विभावों का अभाव करने वाले हैं । स्वाभाविक परिणति से सहित हैं और क्षय से रहित हैं।
अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्वचतुष्टयमय राजत गंभीर
मुनिगणधरादि सेवत महंत, नव केवल-लब्धिरमा धरंत ॥५॥
अन्वयार्थ : हे भगवान्! आप अठारह दोषों से रहित हैं, अटल हैं, अपने स्वचतुष्टय से सुशोभित हैं, समुद्र के समान गम्भीर हैं। मुनि और गणधर आदि भी आपकी सेवा करते हैं, आप केवलज्ञान आदि नव क्षायिक लब्धिरूपी लक्ष्मी को धारण किये हुये हैं।
तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैहैं सदीव
भवसागर में दुख छार वारि, तारन को और न आप टारि ॥६॥
अन्वयार्थ : हे भगवान्! आपके मोक्षमार्ग रूपी शासन की सेवा करके अनन्तों जीव मोक्ष को प्राप्त हुये हैं, वर्तमान में जा रहे हैं और हमेशा जावेंगे। संसार रूपी समुद्र में खारे पानी के समान दुख से निकालने के लिये आपको छोड़कर कोई दूसरा नहीं है ।
यह लखि निजदुखगद हरणकाज, तुम ही निमित्तकारण इलाज ।
जाने तातैं मैं शरण आय, उचरों निज दुख जो चिर लहाय ॥७॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार देखकर, कि अपने दुःख रूपी रोग को नष्ट करने के लिये आपका निमित्त ही इलाज स्वरूप है। अत: ऐसा जानकर मैं आपकी शरण में आया हूँ एवं जो मैंने अनादिकाल से दुःख प्राप्त किये हैं, उनको कहता हूँ।
मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि आप, अपनाये विधि-फल पुण्य-पाप
निज को पर का करता पिछान, पर में अनिष्टता इष्ट ठान ॥८॥
अन्वयार्थ : मैं अपनी ज्ञानस्वभावी आत्मा को भूलकर अपने आप ही संसार में भ्रमण कर रहा हूँ और मैंने कर्मों के फल पुण्य और पाप को अपना लिया है। अपने को पर का कर्ता मान लिया है, और अपना कर्ता पर को मान लिया है और पर-पदार्थों में से ही कुछ को इष्ट मान लिया है और कुछ को अनिष्ट मान लिया है।
आकुलित भयो अज्ञान धारि, ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि
तन परिणति में आपो चितार, कबहूँ न अनुभवो स्वपदसार ॥९॥
अन्वयार्थ : परिणामस्वरूप प्रज्ञान को धारण करके स्वयं ही आकुलित हुआ हूँ, जिस प्रकार कि हरिण मृगतृष्णावश बालू को पानी समझकर अपने अज्ञान से ही दुःखी होता है। शरीर की दशा को ही अपनी दशा मानकर अपने पद का अनुभव नहीं किया ।
तुमको बिन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश
पशु नारक नर सुरगति मँझार, भव धर-धर मर्यो अनंत बार ॥१०॥
अन्वयार्थ : हे जिनेश! आपको पहिचाने बिना जो दुःख मैंने पाये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। तिर्यंच गति, नरक गति, मनुष्य गति और देव गति में उत्पन्न होकर अनन्त बार मरण किया है ।
अब काललब्धि बलतैं दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल
मन शांत भयो मिटि सकल द्वन्द्व, चाख्यो स्वातमरस दुख निकंद ॥११॥
अन्वयार्थ : अब काललब्धि के आने पर आपके दर्शन प्राप्त हुए हैं, इससे मुझे बहुत ही प्रसन्नता है । मेरा अन्तर्द्वन्द्व समाप्त हो गया है और मेरा मन शान्त हो गया है और मैंने दुःखों को नाश करने वाली आत्मानुभूति को प्राप्त कर लिया है ।
तातैं अब ऐसी करहु नाथ, बिछुरै न कभी तुव चरण साथ
तुम गुणगण को नहिं छेव देव, जग तारन को तुव विरद एव ॥१२॥
अन्वयार्थ : अतः हे नाथ! अब ऐसा करो जिससे आपके चरणों के साथ का वियोग न हो । हे देव! आपके गुणों का तो कोई अन्त नहीं है और संसार से पार उतारने को तो आप ही ख्याति प्राप्त हैं ।
आतम के अहित विषय-कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय
मैं रहूँ आपमें आप लीन, सो करो होऊँ ज्यों निजाधीन ॥१३॥
अन्वयार्थ : आत्मा का अहित करने वाली पाँचों इन्द्रियों के विषयों में लीनता और कषायें हैं । हे प्रभो! मैं चाहता हूँ कि इनकी ओर मेरा झुकाव न हो । मैं तो अपने में ही लीन रहूँ, जिससे मैं पूर्ण स्वाधीन हो जाऊँ ।
मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश
मुझ कारज के कारन सु आप, शिव करहु हरहु मम मोहताप ॥१४॥
अन्वयार्थ : मेरे हृदय में और कोई इच्छा नहीं है, बस एक रत्नत्रय निधि ही पाना चाहता हूँ । मेरे हित रूपी कार्य के निमित्त कारण आप ही हो । मेरा मोह-ताप नष्ट होकर कल्याण हो, यही भावना है ।
शशि शांतिकरन तपहरन हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत
पीवत पियूष ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुभवतैं भव नशाय ॥१५॥
अन्वयार्थ : जैसे चन्द्रमा स्वयमेव गर्मी कम करके शीतलता प्रदान करता है, उसी प्रकार आपकी स्तुति करने से स्वयमेव ही आनन्द प्राप्त होता है । जैसे अमृत के पीने से रोग चला जाता है, उसी प्रकार आपका अनुभव करने से संसार-रूपी रोग चला जाता है ।
त्रिभुवन तिहुँ काल मँझार कोय, नहिं तुम बिन निज सुखदाय होय
मो उर यह निश्चय भयो आज, दुख जलधि उतारन तुम जहाज ॥१६॥
अन्वयार्थ : तीनों लोकों में और तीनों कालों में आपके समान सुखदायक और कोई नहीं है। ऐसा आज मुझे निश्चय हो गया है कि आप ही दुःख-रूपी समुद्र से पार उतारने वाले जहाज हो ।
तुम गुणगणमणि गणपति, गणत न पावहिं पार
'दौल' स्वल्पमति किम कहै, नमूँ त्रियोग सँभार ॥
अन्वयार्थ : आपके गुणों-रूपी मणियों को गिनने में गणधर देव भी समर्थ नहीं हैं, तो फिर मैं अल्पबुद्धि उनका वर्णन किस प्रकार कर सकता हूँ। अंतः मैं आपको मन, वचन और काय को सँभाल कर बार-बार नमस्कार करता हूँ ।