भक्तामर
आ. मानतुंग कृत
भक्तामर-प्रणत-मौलिमणि-प्रभाणा-
मुद्योतकं दलित-पाप-तमोवितानम्
सम्यक् प्रणम्य जिन पादयुगं युगादा-
वालंबनं भवजले पततां जनानाम् ॥१॥
भक्त अमर नत-मुकुट सुमणियों, की सुप्रभा का जो भासक
पापरूप अतिसघन-तिमिर का, ज्ञान-दिवाकर-सा नाशक ॥
भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलम्बन
उनके चरण-कमल को करते, सम्यक् बारम्बार नमन ॥१॥
अन्वयार्थ : झुके हुए भक्त देवों के मुकुट-जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्म-युग के प्रारम्भ में संसार-समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्र-देव के चरण-युगल को मन-वचन-काय से प्रणाम करके ।
यः संस्तुतः सकल-वाङ्गमय-तत्त्वबोधा-
दुद्भूत-बुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः
स्तोत्रैर्जगत्त्रितय चित्त हरैरुदारैः
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥
सकल वाङ् मय तत्त्वबोध से, उद्भव पटुतर धी-धारी
उसी इन्द्र की स्तुति से है, वन्दित जग-जन मनहारी ॥
अति आश्चर्य की स्तुति करता, उसी प्रथम जिन स्वामी की
जगनामी-सुखधामी तद्भव-शिवगामी अभिरामी की ॥२॥
अन्वयार्थ : सम्पूर्ण श्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन-लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन प्रथम तीर्थंकर की निश्चय ही मैं भी स्तुति करुँगा ।
बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ
स्तोतुं समुद्यत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम्
बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-बिम्ब-
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥
स्तुति को तैयार हुआ हूँ, मैं निर्बुद्धि छोड़ के लाज
विज्ञजनों से अर्चित हैं प्रभु, मंदबुद्धि की रखना लाज ॥
जल में पड़े चन्द्र-मंडल को, बालक बिना कौन मतिमान ?
सहसा उसे पकडऩे वाली, प्रबलेच्छा करता गतिमान ॥३॥
अन्वयार्थ : देवों के द्वारा पूजित है सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र ! मैं बुद्धि-रहित, निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन सहसा पकड़ने की इच्छा करता है?
वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र शशाङक-कान्तान्
कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्धया
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥
हे जिन ! चन्द्रकान्त से बढक़र, तव गुण विपुल अमल अतिश्वेत
कह न सकें नर हे गुण-सागर, सुर-गुरु के सम बुद्धिसमेत ॥
मक्र-नक्र-चक्रादि जन्तु युत, प्रलय पवन से बढ़ा अपार
कौन भुजाओं से समुद्र के, हो सकता है परले पार ॥४॥
अन्वयार्थ : हे गुणों के भंडार ! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है ? प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें, ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है ?
सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश
कर्तुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः
प्रीत्यात्म-वीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रं
नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥
वह मैं हूँ, कुछ शक्ति न रखकर, भक्ति प्रेरणा से लाचार
करता हूँ स्तुति प्रभु तेरी, जिसे न पौर्वा-पर्य विचार ॥
निज शिशु की रक्षार्थ आत्म-बल, बिना विचारे क्या न मृगी
जाती है मृगपति के आगे, शिशु-सनेह में हुई रंगी ॥५॥
अन्वयार्थ : हे मुनीश ! शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ; हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती ?
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्र-चारु- कलिका निकरैकहेतु ॥६॥
अल्पश्रुत हूँ श्रुतवानों से, हास्य कराने का ही धाम
करती है वाचाल मुझे प्रभु! भक्ति आपकी आठों याम ॥
करती मधुर गान पिक मधु में, जग-जन मनहर अति अभिराम
उसमें हेतु सरस फल-फूलों, से युत हरे-भरे तरु -आम ॥६॥
अन्वयार्थ : विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती है; बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र-कलिका ही एक मात्र कारण है ।
त्वत्संस्तवेन भव-संतति-सन्निबद्धं
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्
आक्रान्त -लोकमलि-नीलमशेषमाशु
सूर्यांशु-भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७॥
जिनवर की स्तुति करने से, चिर संचित भविजन के पाप
पलभर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप ॥
सकल लोक में व्याप्त रात्रि का, भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त
प्रात: रवि की उग्र किरण लख, हो जाता क्षण में प्राणान्त ॥७॥
अन्वयार्थ : आपकी स्तुति से प्राणियों के अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप-कर्म क्षण-भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न-भिन्न हो जाता है ।
मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात्
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु
मुक्ता-फल द्युतिमुपैति ननूद-बिन्दुः ॥८॥
मैं मतिहीन-दीन प्रभु तेरी, शुरू करूँ स्तुति अघ-हान
प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगा, सन्तों का निश्चय से मान ॥
जैसे कमल-पत्र पर जल-कण, मोती जैसे आभावान
दिपते हैं फिर छिपते हैं असली मोती में हे भगवान् ॥८॥
अन्वयार्थ : हे स्वामिन् ! ऐसा मानकर मुझ मन्द-बुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगा; निश्चय से पानी की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती है ।
आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषं
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति
दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव
पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजि ॥९॥
दूर रहे स्तोत्र आपका, जो कि सर्वथा है निर्दोष
पुण्य-कथा ही किन्तु आपकी, हर लेती है कल्मष-कोष ॥
प्रभा प्रफुल्लित करती रहती, सर के कमलों को भरपूर
फेंका करता सूर्य-किरण को, आप रहा करता है दूर ॥९॥
अन्वयार्थ : सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है; सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है ।
नात्यद्भुतं भुवन भूषण भूतनाथ
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥
त्रिभुवन-तिलक जगत-पति हे प्रभु! सद्गुरुओं के हे गुरुवर्य
सद्भक्तों को निज सम करते, इसमें नहीं अधिक आश्चर्य ॥
स्वाश्रित जन को निजसम करते, धनी लोग धन धरनी से
नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या ? उन धनिकों की करनी से ॥१०॥
अन्वयार्थ : हे जगत् के भूषण ! हे प्राणियों के नाथ ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष, पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है, क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता ।
दृष्टवा भवन्तमनिमेष विलोकनीयं
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः
पीत्वा पयः शशिकरद्युति दुग्धसिन्धोः
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥
हे अनिमेष विलोकनीय प्रभु! तुम्हें देखकर परम-पवित्र
तोषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र ॥
चन्द्रकिरण सम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जल पान
कालोदधि का खारा पानी, पीना चाहे कौन पुमान ॥११॥
अन्वयार्थ : हे अनिमेष दर्शनीय प्रभो ! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते । चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीर-समुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा ?
यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्तवं
निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥
जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह
थे उतने वैसे अणु जग में, शान्ति-राग-मय नि:सन्देह ॥
हे त्रिभुवन के शिरोभाग के, अद्वितीय आभूषण-रूप
इसीलिये तो आप सरीखा, नहीं दूसरों का है रूप ॥१२॥
अन्वयार्थ : हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव ! जिन राग-रहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई, वे परमाणु, पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है ।
वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि
निःशेष-निर्जित-जगत्त्रितयोपमानम्
बिम्बं कलङ्क मलिनं क्व निशाकरस्य
यद्वासरे भवति पांडु-पलाशकल्पम् ॥१३॥
कहाँ आपका मुख अतिसुंदर, सुर-नर उरग नेत्रहारी
जिसने जीत लिये सब जग के, जितने थे उपमाधारी ॥
कहाँ कलंकी बंक चन्द्रमा, रंक-समान कीट-सा दीन
जो पलाश-सा फीका पड़ता,दिन में हो करके छबि-छीन ॥१३॥
अन्वयार्थ : हे प्रभो ! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख ? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां ? जो दिन में पलाश के पत्ते के समान फीका पड़ जाता है ।
सम्पूर्ण-मण्डल-शशाङ्क-कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति
ये संश्रितास् त्रिजगदीश्वर नाथमेकं
कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥
तव गुण पूर्ण-शशांक कान्तिमय, कला-कलापों से बढक़े
तीन लोक में व्याप रहे हैं, जो कि स्वच्छता में चढक़े ॥
विचरें चाहे जहाँ कि जिनको, जगन्नाथ का एकाधार
कौन माई का जाया रखता, उन्हें रोकने का अधिकार ॥१४॥
अन्वयार्थ : पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण तीनों-लोक में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घूमते हुए कौन रोक सकता है ?
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभि
र्नीतं मनागपि मनो न विकार मार्गम् ॥
कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ॥१५॥
मद की छकी अमर ललनाएँ, प्रभु के मन में तनिक विकार
कर न सकीं आश्चर्य कौन-सा, रह जाती हैं मन को मार ॥
गिरि गिर जाते प्रलय पवन से, तो फिर क्या वह मेरु-शिखर
हिल सकता है रंच-मात्र भी, पाकर झंझावात प्रखर ॥१५॥
अन्वयार्थ : यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है ? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है ?
निर्धूमवर्तिरपवर्जित तैलपूरः
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी करोषि ॥
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः ॥१६॥
धूम न बत्ती तैल बिना ही, प्रकट दिखाते तीनों लोक
गिरि के शिखर उड़ाने वाली, बुझा न सकती मारुत झोक ॥
तिस पर सदा प्रकाशित रहते, गिनते नहीं कभी दिन-रात
ऐसे अनुपम आप दीप हैं, स्वपर प्रकाशक जग विख्यात ॥१६॥
अन्वयार्थ : हे स्वामिन् ! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत-प्रकाशक अलौकिक दीपक हैं जिसे विशाल पर्वतों को कंपा देने वाला झंझावात भी कभी बुझा नहीं सकता ।
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति
नाम्भोधरोदर निरुद्धमहाप्रभावः
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥१७॥
अस्त न होता कभी न जिसको, ग्रस पाता है राहु प्रबल
एक साथ बतलाने वाला, तीन लोक का ज्ञान विमल ॥
रुकता कभी प्रभाव न जिसका, बादल की आकर के ओट
ऐसी गौरव-गरिमा वाले, आप अपूर्व दिवाकर कोट ॥१७॥
अन्वयार्थ : हे मुनीन्द्ररुपी सूर्य ! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं ।
नित्योदयं दलितमोहमहान्धकारं
गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम्
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प कान्ति
विद्योतयज्जगदपूर्व-शशाङ्क-बिम्बम् ॥१८॥
मोह महातम दलने वाला, सदा उदित रहने वाला
राहु न बादल से दबता पर, सदा स्वच्छ रहने वाला ॥
विश्व प्रकाशकमुख-सरोज तब, अधिक कांतिमय शांतिस्वरूप
है अपूर्व जग का शशिमंडल, जगत शिरोमणि शिव का भूप ॥१८॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्रदेव ! आपका मुख-मंडल नित्य उदित रहने वाला विलक्षण चंद्रमा है, जिसने मोहरूपी अंधकार को नष्ट कर दिया है, जो अत्यंत दीप्तिमान है, जिसे न राहु ग्रस सकता है और न बादल छिपा सकते हैं, तथा जो जगत को प्रकाशित करता हुआ अलौकिक चंद्रमंडल की तरह सुशोभित होता है ।
किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमस्सु नाथ
निष्पन्न- शालि-वन-शालिनि जीव-लोके
कार्यं कियज्जलधरैर्जल-भार-नम्रैः ॥१९॥
नाथ ! आपका मुख जब करता, अन्धकार का सत्यानाश
तब दिन में रवि और रात्रि में, चन्द्रबिम्ब का विफल प्रयास ॥
धान्य खेत जब धरती तल के, पके हुए हों अति अभिराम
शोर मचाते जल को लादे, हुए घनों से तब क्या काम ? ॥१९॥
अन्वयार्थ : हे स्वामिन् ! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन ? जैसे कि पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन ।
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं
नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं
नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥
जैसा शोभित होता प्रभु का, स्वपर प्रकाशक उत्तम ज्ञान
हरि-हरादि देवों में वैसा, कभी नहीं हो सकता भान ॥
अति ज्योर्तिमय महारतन का, जो महत्त्व देखा जाता
क्या वह किरणा-कुलित काँच में, अरे कभी लेखा जाता ॥२०॥
अन्वयार्थ : अनंत गुण-पर्यायात्मक पदार्थों को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान जिस प्रकार आप में सुशोभित होता है वैसा हरि-हरादिक लौकिक देवों में है ही नहीं । स्फ़ुरायमान महारत्नों में जैसा तेज होता है, किरणों की राशि से व्याप्त होने पर भी काँच के टुकडों में वैसा तेज नहीं होता ।
मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः
कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ॥२१॥
हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूँ उत्तम अवलोकन
क्योंकि उन्हें देखने भर से, तुझसे तोषित होता मन ॥
है परन्तु क्या तुम्हें देखने, से हे स्वामिन्! मुझको लाभ
जन्म-जन्म में लुभा न पाते, कोई यह मेरा अमिताभ ॥२१॥
अन्वयार्थ : हे स्वामिन् ! इस पृथ्वी पर मैने विष्णु और महादेव देखे, तो ठीक ही है, क्योंकि उन्हें देखकर, आपको देखने के बाद मन तृप्त हुआ, किन्तु आपको देखने से क्या लाभ ? जिससे कि पृथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता ।
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्र-रश्मिं
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालं ॥२२॥
सौ-सौ नारी, सौ-सौ सुत को, जनती रहती सौ-सौ ठौर
तुम से सुत को जनने वाली, जननी महती क्या है और ॥
तारागण को सर्व दिशाएँ धरें नहीं कोई खाली
पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी, दिनपति को जनने वाली ॥२२॥
अन्वयार्थ : सैकड़ों-स्त्रियाँ सैकड़ों-पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी । नक्षत्रों को सभी दिशायें धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व-दिशा ही जन्म देती है ।
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-
मादित्य-वर्णममलं तमसः पुरस्तात्
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्युं
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ॥२३॥
तुम को परम पुरुष मुनि मानें, विमल वर्ण रवि तमहारी
तुम्हें प्राप्त कर मृत्युञ्जय के, बन जाते जन अधिकारी ॥
तुम्हें छोडक़र अन्य न कोई, शिवपुर-पथ बतलाता है
किन्तु विपर्यय मार्ग बताकर, भव-भव में भटकाता है ॥२३॥
अन्वयार्थ : हे मुनीन्द्र ! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी, निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम-पुरुष मानते हैं । वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर मृत्यु को जीतते हैं । इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है ।
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं
ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंगकेतुम्
योगीश्वरं विदित-योगमनेकमेकं
ज्ञान-स्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥
तुम्हें आद्य अक्षय अनन्त प्रभु, एकानेक तथा योगीश
ब्रह्मा ईश्वर या जगदीश्वर, विदितयोग मुनिनाथ मुनीश ॥
विमल ज्ञानमय या मकरध्वज, जगन्नाथ जगपति जगदीश
इत्यादिक नामों कर माने, सन्त निरन्तर विभो निधीश ॥२४॥
अन्वयार्थ : सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक, ज्ञान-स्वरुप और अमल कहते हैं ।
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित बुद्धि बोधात्
त्वं शंकरोऽसि भुवन-त्रय-शंकरत्वात्
धातासि धीर शिव-मार्ग विधेर्विधानाद्
व्यक्तं त्वमेव भगवन्पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥
ज्ञान पूज्य है, अमर आपका, इसीलिये कहलाते बुद्ध
भुवनत्रय के सुख संवर्धक, अत: तुम्हीं शंकर हो शुद्ध ॥
मोक्ष-मार्ग के आद्य प्रवर्तक, अत: विधाता कहे गणेश
तुम सम अवनी पर पुरुषोत्तम, और कौन होगा अखिलेश ॥२५॥
अन्वयार्थ : देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हैं । तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण आप ही शंकर हैं । हे धीर ! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हैं । हे स्वामिन्! आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं ।
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ!
तुभ्यं नमः क्षिति-तलामल-भूषणाय
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधिशोषणाय ॥२६॥
तीन लोक के दु:ख हरण करने वाले हे तुम्हें नमन
भूमण्डल के निर्मल-भूषण आदि जिनेश्वर तुम्हें नमन ॥
हे त्रिभुवन के अखिलेश्वर हो, तुमको बारम्बार नमन
भवसागर के शोषक पोषक, भव्यजनों के तुम्हें नमन ॥२६॥
अन्वयार्थ : तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले को नमस्कार हो, पृथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप को नमस्कार हो, तीनों जगत् के परमेश्वर को नमस्कार हो और संसार समुद्र को सुखा देने वाले को नमस्कार हो ।
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै
स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीशः!
दोषैरूपात्तविविधाश्रय- जात-गर्वैः
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७॥
गुणसमूह एकत्रित होकर, तुझमें यदि पा चुके प्रवेश
क्या आश्चर्य न मिल पाये हों, अन्य आश्रय उन्हें जिनेश
देव कहे जाने वालों से, आश्रित होकर गर्वित दोष
तेरी ओर न झाँक सकें वे, स्वप्नमात्र में हे गुण-कोष ॥२७॥
अन्वयार्थ : हे मुनीश ! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य ?
उच्चैरशोक तरु-संश्रितमुन्मयूख
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्
स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त- तमो-वितानं
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति ॥२८॥
उन्नत तरु अशोक के आश्रित, निर्मल किरणोन्नत वाला
रूप आपका दिपता सुन्दर, तमहर मनहर-छवि-वाला ॥
वितरण-किरण निकर तमहारक, दिनकर घनके अधिक समीप
नीलाचल पर्वत पर होकर, नीरांजन करता ले दीप ॥२८॥
अन्वयार्थ : ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला, आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है, अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित सूर्य-बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है ।
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्
बिम्बं वियद्विलसदंशुलता- वितानं
तुंगोदयाद्रिशिरसीव सहस्त्र-रश्मेः ॥२९॥
मणि-मुक्ता-किरणों से चित्रित, अद्भुत शोभित सिंहासन
कान्तिमान कंचन सा दिखता, जिस पर तव कमनीय वदन ॥
उदयाचल के तुंग शिखर से, मानो सहस्र रश्मि वाला
किरण-जाल फैलाकर निकला, हो करने को उजियाला ॥२९॥
अन्वयार्थ : मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर, आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के उच्च शिखर पर आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के समूह वाले सूर्य-मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है ।
कुन्दावदात चल-चामर-चारु-शोभं
विभ्राजते तव वपुः कलधौत-कान्तम्
उद्यच्छशांक-शुचि-निर्झर वारि-धार
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥
ढुरते सुन्दर चँवर विमल अति, नवल कुन्द के पुष्प-समान
शोभा पाती देह आपकी, रौप्य धवल-सी आभावान ॥
कनकाचल के तुंग शृंग से, झर-झर झरता है निर्झर
चन्द्रप्रभा सम उछल रही हो, मानो उसके ही तट पर ॥३०॥
अन्वयार्थ : कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है शोभा जिसकी, ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, सुमेरु-पर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है, के स्वर्ण-निर्मित ऊँचे तट की तरह शोभायमान हो रहा है ।
छत्रत्रयं तव विभाति शशांक-कान्त
मुच्चैःस्थितं स्थगित-भानु-कर प्रतापम्
मुक्ता-फल-प्रकर-जाल विवृद्ध-शोभं
प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥
चन्द्रप्रभा सम झल्लरियों से, मणि-मुक्तामय अति कमनीय
दीप्तिमान शोभित होते हैं, सिर पर छत्र-त्रय भवदीय ॥
ऊपर रहकर सूर्य-रश्मि का, रोक रहे हैं प्रखर प्रताप
मानों वे घोषित करते हैं, त्रिभुवन के परमेश्वर आप ॥३१॥
अन्वयार्थ : चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले, आपके ऊपर स्थित तीन-छत्र, मानो आपके तीन लोक के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं ।
गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभाग
स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-संगम-भूति-दक्षः
सद्धर्मराज-जय-घोषण घोषकः सन्
खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥
ऊँचे स्वर से करने वाली, सर्व दिशाओं में गुञ्जन
करने वाली तीन लोक के, जन-जन का शुभ-सम्मेलन ॥
पीट रही है डंका, हो सत् धर्म-राज की हो जय-जय
इस प्रकार बज रही गगन में, भेरी तव यश की अक्षय ॥३२॥
अन्वयार्थ : गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करने वाला, तीन-लोक के जीवों को शुभ विभूति प्राप्त कराने में समर्थ और समीचीन जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करने वाला दुन्दुभि वाद्य, आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है ।
मन्दार-सुन्दर-नमेरू-सुपारिजात
सन्तानकादि-कुसुमोत्कर- वृष्टि-रुद्धा
गन्धोद-बिन्दु-शुभ-मन्द मरुत्प्रपाता
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा ॥३३॥
कल्पवृक्ष के कुसुम मनोहर, पारिजात एवं मंदार
गंधोदक की मंदवृष्टि करते हैं प्रमुदित देव उदार ॥
तथा साथ ही नभ से बहती, धीमी-धीमी मंद पवन
पंक्ति बाँधकर बिखर रहे हों, मानों तेरे दिव्य वचन ॥३३॥
अन्वयार्थ : सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगन्धित वायु के साथ गिरने वाले श्रेष्ठ मनोहर मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा आपके वचनों की पंक्तियों की तरह आकाश से होती है ।
शुम्भत्प्रभा-वलय भूरिविभा विभोस्ते
लोक-त्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती
प्रोद्यद्यिवाकर निरन्तर- भूरि-संख्या
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ॥३४॥
तीन लोक की सुन्दरता यदि, मूर्तिमान बनकर आये
तन-भा-मंडल की छवि लखकर, तव सन्मुख शरमा जावे ॥
कोटि सूर्य के ही प्रताप सम, किन्तु नहीं कुछ भी आताप
जिसके द्वारा चन्द्र सु-शीतल, होता निष्प्रभ अपने आप ॥३४॥
अन्वयार्थ : हे प्रभो ! तीनों लोक के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति, एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कान्ति से युक्त होने पर भी चन्द्रमा से अधिक शीतलता, सौम्यता प्रदान करने वाली है ।
स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग विमार्गणेष्टः
सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पटुस्त्रिलोक्याः
दिव्य-ध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्व
भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणैः प्रयोज्यः ॥३५॥
मोक्ष-स्वर्ग के मार्ग प्रदर्शक, प्रभुवर तेरे दिव्य-वचन
करा रहे है सत्य-धर्म के, अमर-तत्त्व का दिग्दर्शन ॥
सुनकर जग के जीव वस्तुत:, कर लेते अपना उद्धार
इस प्रकार परिवर्तित होते, निज-निज भाषा के अनुसार ॥३५॥
अन्वयार्थ : आपकी दिव्य-ध्वनि स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बताने में सक्षम, तीन लोक के जीवों को समीचीन धर्म का कथन करने में समर्थ, स्पष्ट अर्थ वाली, समस्त भाषाओं में परिवर्तित करने वाले स्वाभाविक गुण से सहित होती है ।
उन्निद्र-हेम-नव-पंकज-पुंज-कान्ती
पर्युल्लसन्नख-मयूख-शिखाभिरामौ
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥
जगमगात नख जिसमें शोभें, जैसे नभ में चन्द्रकिरण
विकसित नूतन सरसीरुह सम, हे प्रभु तेरे विमल चरण ॥
रखते जहाँ वहीं रचते हैं, स्वर्ण-कमल, सुर दिव्य ललाम
अभिनन्दन के योग्य चरण तव,भक्ति रहे उनमें अभिराम ॥३६॥
अन्वयार्थ : नव विकसित स्वर्ण-कमलों के समान शोभायमान नखों की किरण प्रभा से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं वहाँ देव-गण स्वर्णमयी कमलों की रचना करते जाते हैं ।
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र!
धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य
यादृक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा
तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि ॥३७॥
धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य
वैसा क्या कुछ अन्य कुदेवों, में भी दिखता है सौन्दर्य ॥
जो छवि घोर-तिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती
वैसी ही क्या अतुल कान्ति, नक्षत्रों में लेखी जाती ॥३७॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र ! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य होता है, वैसा अन्य देवों को कभी प्राप्त नहीं होता । अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है ?
श्च्योतन्मदाविल-विलोल-कपोल-मूल-
मत्त-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-विवृद्ध कोपम् ।
ऐरावताभमिभमुद्धतमापतनतं,
दृष्टवा भयं भवति नो भवदाश्रितानां ॥३८॥
लोल कपोलों से झरती हैं, जहाँ निरन्तर मद की धार
होकर अति मदमत्त कि जिस पर, करते हैं भौंरे गुँजार ॥
क्रोधासक्त हुआ यों हाथी, उद्धत ऐरावत-सा काल
देख भक्त छुटकारा पाते, पाकर तव आश्रय तत्काल ॥३८॥
अन्वयार्थ : [भवदाश्रितानाम्] आपके आश्रित मनुष्यों को [श्च्योतन्मदाविल-विलोलकपोलमूल मत्तभ्रमद्भ्रमर नादविवृद्धकोपम्] झरते हुए मद जल से मलिन और चंचल गालों के मूल भाग में पागल हो घूमते हुए भौरों के शब्द से बढ़ गया है क्रोध जिसका ऐसे [ऐरावताभम्] ऐरावत की तरह [उद्धतम्] उद्दण्ड [आपतन्तम्] सामने आते हुए [इभम्] हाथी को [दृष्ट्वा] देखकर [भयम्] डर [नो भवति] नहीं होता।
भिन्नेभ-कुम्भ-गलदुज्जवल-शोणिताक्त
मुक्ता-फल-प्रकर-भूषित-भूमिभागः
बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणाधिपोऽपि
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥३९॥
क्षत-विक्षत कर दिये गजों के, जिसने उन्नत गण्डस्थल
कान्तिमान गज-मुक्ताओं से, पाट दिया हो अवनी-तल ॥
जिन भक्तों को तेरे चरणों के, गिरि की हो उन्नत ओट
ऐसा सिंह छलांगे भरकर, क्या उस पर कर सकता चोट? ॥३९॥
अन्वयार्थ : [भिन्नेभकुम्भगलदुज्ज्वलशोणिताक्तमुक्ताफलप्रकरभूषित-भूमिभागः] विदारे हुए हाथी के, गण्डस्थल से गिरते हुए उज्ज्वल तथा खून से भीगे हुए मोतियों के समूह के दवारा भूषित किया है पृथ्वी का भाग जिसने ऐसा तथा [बद्धक्रमः] छलांग मारने के लिए तैयार [हरिणाधिपः अपि] सिंह भी [क्रमगतम्] अपने पांवों के बीच आये हुए [ते] आपके [क्रमयुगाचलसंश्रितम्] चरण-युगल रूप पर्वत का आश्रय लेने वाले पुरूष पर [न आक्रामति] आक्रमण नहीं करता।
कल्पांत-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं
दावानलं ज्वलितमुज्जवलमुत्स्फुलिंगम्
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम् ॥४०॥
प्रलयकाल की पवन उड़ाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर
फिकें फुलिंगे ऊपर तिरछे, अंगारों का भी होवे जोर ॥
भुवनत्रय को निगला चाहे, आती हुई अग्नि भभकार
प्रभु के नाम-मंत्र-जल से वह, बुझ जाती है उसही बार ॥४०॥
अन्वयार्थ : आपकी नाम स्मरणरुपी जलधारा, प्रलयकाल की वायु से उद्धत, प्रचण्ड अग्नि के समान प्रज्वलित, उज्ज्वल चिंगारियों से युक्त, संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई वन की अग्नि को पूर्ण रुप से बुझा देती है ।
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं
क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम्
आक्रामति क्रम-युगेण निरस्त-शंकः
स्त्वन्नाम-नाग-दमनी हृदि यस्य पुंसः ॥४१॥
कंठ-कोकिला सा अति काला, क्रोधित हो फण किया विशाल
लाल-लाल लोचन करके यदि, झपटै नाग महा विकराल ॥
नाम-रूप तब अहि-दमनी का, लिया जिन्होंने हो आश्रय
पग रख कर निश्शंक नाग पर, गमन करें वे नर निर्भय ॥४१॥
अन्वयार्थ : जिस पुरुष के हृदय में नाम स्मरणरुपी-नागदमनी नामक औषध मौजूद है, वह पुरुष लाल-लाल आँखों वाले, मद-युक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले, क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए, सामने आते हुए सर्प को निःशंक निर्भय होकर पुष्पमाला की भांति दोनों पैरों से लाँघ जाता है ।
वल्गत्तुरंग-गज-गर्जित-भीमनाद-
माजौ बलं बलवतामपि भूपतीनाम्!
उद्यद्दिवाकर मयूख शिखापविद्धं
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति ॥४२॥
जहाँ अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर
शूरवीर नृप की सेनायें, रव करती हों चारों ओर ॥
वहाँ अकेला शक्तिहीन नर, जप कर सुन्दर तेरा नाम
सूर्य तिमिर सम शूर-सैन्य का, कर देता है काम तमाम ॥४२॥
अन्वयार्थ : आपके यशोगान से युद्ध-क्षेत्र में उछलते हुए घोडे़ और हाथियों की गर्जना से उत्पन भयंकर कोलाहल से युक्त पराक्रमी राजाओं की भी सेना, उगते हुए सूर्य किरणों की शिखा से वेधे गये अंधकार की तरह शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती है ।
कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह
वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षा-
स्त्वत्पाद-पंकज-वनाश्रयिणो लभन्ते ॥४३॥
रण में भालों से वेधित गज, तन से बहता रक्त अपार
वीर लड़ाकू जहँ आतुर हैं, रुधिर-नदी करने को पार ॥
भक्त तुम्हारा हो निराश तहँ, लख अरिसेना दुर्जयरूप
तव पादारविन्द पा आश्रय, जय पाता उपहार-स्वरूप ॥४३॥
अन्वयार्थ : हे भगवन् ! आपके चरण-कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष, भालों की नोकों से छेद गये हाथियों के रक्त रुप जल-प्रवाह में पडे़ हुए, तथा उसे तैरने के लिये आतुर हुए योद्धाओं से भयानक युद्ध में, दुर्जय शत्रु-पक्ष को भी जीत लेते हैं ।
अम्भोनिधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र
पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रा
स्त्रासं विहाय भवतःस्मरणाद् व्रजन्ति ॥४४॥
वह समुद्र कि जिसमें होवें, मच्छ मगर एवं घडिय़ाल
तूफां लेकर उठती होवें, भयकारी लहरें उत्ताल ॥
भ्रमर-चक्र में फँसे हुये हों, बीचोंबीच अगर जलयान
छुटकारा पा जाते दु:ख से, करने वाले तेरा ध्यान ॥४४॥
अन्वयार्थ : क्षोभ को प्राप्त भयंकर मगरमच्छों के समूह और मछलियों के द्वारा भयभीत करने वाले दावानल से युक्त समुद्र में विकराल लहरों के शिखर पर स्थित है जहाज जिनका, ऐसे मनुष्य, आपके स्मरण-मात्र से भय छोड़कर पार हो जाते हैं ।
उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः
शोच्यां दशामुपगता्श्चुतजीविताशाः
त्वत्पाद-पंकज -रजोऽमृत-दिग्ध-देहा
मर्त्या भवन्ति मकरध्वज-तुल्यरूपाः ॥४५॥
असहनीय उत्पन्न हुआ हो, विकट जलोदर पीड़ा भार
जीने की आशा छोड़ी हो, देख दशा दयनीय अपार ॥
ऐसे व्याकुल मानव पाकर, तेरी पद-रज संजीवन
स्वास्थ्य लाभ कर बनता उसका, कामदेव सा सुंदर तन ॥४५॥
अन्वयार्थ : उत्पन्न हुए भीषण जलोदर रोग के भार से झुके हुए, शोचनीय अवस्था को प्राप्त और नहीं रही है जीवन की आशा जिनके, ऐसे मनुष्य आपके चरण-कमलों की रज रुप अमृत से लिप्त शरीर होते हुए कामदेव के समान रुप वाले हो जाते हैं ।
आपाद-कण्ठमुरू-श्रृंखल-वेष्टितांगा
गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघाः
त्वन्नाम-मंत्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः
सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति ॥४६॥
लोह-शृंखला से जकड़ी है, नख से शिख तक देह समस्त
घुटने-जंघे छिले बेडिय़ों से, जो अधीर जो है अतित्रस्त ॥
भगवन ऐसे बंदीजन भी, तेरे नाम - मंत्र की जाप
जप कर गत-बंधन हो जाते, क्षणभर में अपने ही आप ॥४६॥
अन्वयार्थ : जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाम-मंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन-मुक्त हो जाते है ।
मत्तद्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर बन्धनोत्थम्
तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥
वृषभेश्वर के गुण स्तवन का, करते निश-दिन जो चिंतन
भय भी भयाकुलित हो उनसे, भग जाता है हे स्वामिन् ॥
कुंजर-समर-सिंह-शोक - रुज, अहि दावानल कारागार
इनके अति भीषण दु:खों का, हो जाता क्षण में संहार ॥४७॥
अन्वयार्थ : जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढ़ता है उसका मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र जलोदर रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न भय मानो डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है ।
स्तोत्रस्त्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धां
भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्रपुष्पाम्
धत्ते जनो य इह कंठगतामजस्रं
तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥
हे प्रभु ! तेरे गुणोद्यान की, क्यारी से चुन दिव्य ललाम
गूँथी विविध वर्ण सुमनों की, गुणमाला सुन्दर अभिराम ॥
श्रद्धासहित भविकजन जो भी कण्ठाभरण बनाते हैं
मानतुंग-सम निश्चित सुन्दर, मोक्ष-लक्ष्मी पाते हैं ॥४८॥
अन्वयार्थ : हे जिनेन्द्र देव ! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक, गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग-बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है ।