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गणधरवलय-स्तोत्र

१८ बुद्धि-ऋद्धियां
जिनान् जिताराति-गणान् गरिष्ठान्
देशावधीन् सर्वपरावधींश्च ।
सत्कोष्ठ-बीजादि-पदानुसारीन्
स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥१॥
अन्वयार्थ : [जित आराति] (घाति-कर्म रुपी) शत्रुओं को जीतने वाले [जिनान्] जिनेन्द्र-भगवान के [गणान् गरिष्ठान्] गण (संघ) में श्रेष्ठ (गणधर) [देशावधीन्] देशावधि [सर्व] सर्वावधि और [परावधींश्च] परमावधि ज्ञान धारी [सत्कोष्ठ] कोष्ठ-ऋद्धि, [बीजादि पदानुसारीन्] बीज-ऋद्धि, पदानुसारी आदि ऋद्धि के धारक [गणेशान् अपि] गणधर देव की, [तद्] उनके [तद्गुणाप्त्यै] गुणों की प्राप्ति के लिए, [स्तुवे] स्तुति करता हूँ ।
संभिन्नश्रोत्रान्वित-सन्मुनीन्द्रान्
प्रत्येकसम्बोधित-बुद्धधर्मान् ।
स्वयंप्रबुद्धांश्च विमुक्तिमार्गान्
स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥२॥
अन्वयार्थ : [संभिन्नश्रोत्रान्वित] संभिन्न श्रोतत्व ऋद्धि-सहित [सन्मुनीन्द्रान्] सम्यग्दृष्टि मुनि [प्रत्येकसम्बोधित बुद्ध] प्रत्येक-बुद्ध, [धर्मान्] धर्म के संबोधन द्वारा बुद्ध (बोधित-बुद्ध) [विमुक्तिमार्गान्] मोक्ष-मार्ग में [स्वयंप्रबुद्धांश्च] स्वयं-बुद्ध [गणेशान् अपि] गणधर देव की, [तद्] उनके [तद्गुणाप्त्यै] गुणों की प्राप्ति के लिए, [स्तुवे] स्तुति करता हूँ ।
द्विधा-मनःपर्यय चित्-प्रयुक्तान्
द्विपंच-सप्तद्वय-पूर्वसक्तान् ।
अष्टाङ्गनैमित्तिक-शास्त्रदक्षान्
स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥३॥
अन्वयार्थ : [द्विधा-मनःपर्यय चित्-प्रयुक्तान्] दो प्रकार के मन:पर्यय ज्ञान के धारक [द्विपंच] दस पूर्व [सप्तद्वयपूर्वसक्तान्] चौदह पूर्व के धारक [अष्टाङ्गनैमित्तिक-शास्त्रदक्षान्] अष्टांग महानैमेत्तिक शास्त्रों में कुशल [गणेशान् अपि] गणधर देव की, [तद्] उनके [तद्गुणाप्त्यै] गुणों की प्राप्ति के लिए, [स्तुवे] स्तुति करता हूँ ॥३॥

नौ चारण ऋद्धियां
विकुर्वणाख्यर्द्धि-महा-प्रभावान्
विद्याधरांश्चारण-ऋद्धि-प्राप्तान् ।
प्रज्ञाश्रितान् नित्य खगामिनश्च
स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥४॥
अन्वयार्थ : [महा-प्रभावान्] महा-प्रभावशाली [विकुर्वणाख्यर्द्धि] विक्रिया नामक ऋद्धि के [विद्याधरान्] विद्या-धारक [चारण-ऋद्धिप्राप्तान्] चारण-ऋद्धि को प्राप्त [प्रज्ञाश्रितान्] प्रज्ञावान् और [नित्य खगामिनश्च] सदा आकाश में गमन करने वाले [गणेशान् अपि] गणधर देव की, [तद्] उनके [तद्गुणाप्त्यै] गुणों की प्राप्ति के लिए, [स्तुवे] स्तुति करता हूँ ॥४॥

आठ औषधि ऋद्धियां
आशीर्विषान् दृष्टि-विषान्मुनीन्द्रा
नुग्राति-दीप्तोत्तम-तप्ततप्तान् ।
महातिघोर-प्रतपःप्रसक्तान्
स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥५॥
अन्वयार्थ : [आशीर्विषान्] आशीविष ऋद्धि [दृष्टि-विषान्] दृष्टि-विष ऋद्धि [मुनीन्द्रान्] मुनियों में श्रेष्ठ [उग्राति] अति-उग्र [दीप्तोत्तम] उत्तम दीप्त-तप्त ऋद्धि [तप्ततप्तान्] घोर-तप ऋद्धि [महातिघोर-प्रतपः प्रसक्तान्] महा अति-घोर तप के धारक [गणेशान् अपि] गणधर देव की, [तद्] उनके [तद्गुणाप्त्यै] गुणों की प्राप्ति के लिए, [स्तुवे] स्तुति करता हूँ ॥५॥

सात तप ऋद्धियाँ
वन्द्यान् सुरै-र्घोर-गुणांश्चलोके
पूज्यान् बुधै-र्घोर-पराक्रमांश्च ।
घोरादि-संसद्-गुण ब्रह्मयुक्तान्
स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥६॥
अन्वयार्थ : [वन्द्यान् सुरै:] देवों द्वारा वन्दित [लोके पूज्यान्] लोक में पूज्य [घोरगुणान्] श्रेष्ठ गुण के धारक [च] और [बुधै: पूज्यान्] ज्ञानियों द्वारा पूज्य [घोरपराक्रमान्] घोर-पराक्रम धारक [घोरादि-संसद्-गुण ब्रह्मयुक्तान्] समीचीन श्रेष्ठ घोर गुण ब्रह्मचर्य आदि से युक्त [गणेशान् अपि] गणधर देव की, [तद्] उनके [तद्गुणाप्त्यै] गुणों की प्राप्ति के लिए, [स्तुवे] स्तुति करता हूँ ॥६॥

तीन बल ऋद्धियाँ
आमर्द्धि-खेलर्द्धि-प्रजल्ल-विडर्द्धि
सर्वर्द्धि-प्राप्तांश्च व्यथादि-हंतृन् ।
मनोवचःकाय-बलोपयुक्तान्
स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥७॥
अन्वयार्थ : [आमर्द्धि-खेलर्द्धि-प्रजल्ल-विडर्द्धि] आमर्ष-औषध ऋर्द्धि, खेल्ल-ऋर्द्धि, प्रकृष्ट जल्ल ऋद्धि, विड्-ऋद्धि [सर्वर्द्धि-प्राप्तांश्च] और सर्व-ऋद्धि प्राप्त [व्यथादि-हंतृन्] पीड़ा आदि को हरने वाले [मनोवचःकाय-बल उपयुक्तान्] मनो-वचन-काल बल ऋद्धि से युक्त [गणेशान् अपि] गणधर देव की, [तद्] उनके [तद्गुणाप्त्यै] गुणों की प्राप्ति के लिए, [स्तुवे] स्तुति करता हूँ ॥७॥

छह रस, दो अक्षीण ऋद्धियाँ
सत्क्षीर-सर्पि-र्मधुरा-मृतर्द्धीन्
यतीन् वराक्षीण-महानसांश्च ।
प्रवर्धमानांस्त्रिजगत्-प्रपूज्यान्
स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥८॥
अन्वयार्थ : [सत्क्षीर-सर्पि-र्मधुरा-मृतर्द्धीन्] समीचीन क्षीर-स्रावी, सर्पि-स्रावी, मधुर-स्रावी, और अमृत-स्रावी ऋद्धि के धारक [यतीन्] यति [वराक्षीण-महानसांश्च] श्रेष्ठ अक्षीण-संवास और अक्षीण-महानस ऋद्धियों से [प्रवर्धमानान्] सुशोभित [त्रिजगत्-प्रपूज्यान्] तीन-लोक में पूज्य [गणेशान् अपि] गणधर देव की, [तद्] उनके [तद्गुणाप्त्यै] गुणों की प्राप्ति के लिए, [स्तुवे] स्तुति करता हूँ ॥८॥
सिद्धालयान् श्रीमहतोऽतिवीरान्
श्रीवर्धमानर्द्धि-विबुद्धि-दक्षान् ।
सर्वान् मुनीन् मुक्तीवरा-नृषीन्द्रान्
स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ॥९॥
अन्वयार्थ : [सिद्धालयान्] सिद्धालय में विराजमान [श्रीमहत: ऽतिवीरान्] श्री अति-महान, अति-वीर [श्रीवर्धमानर्द्धि-विबुद्धि-दक्षान्] श्री वर्द्धमान ऋद्धि और विशिष्ट बुद्धि ऋद्धि में दक्ष, कुशल [सर्वान् मुनीन्] सर्व मुनियों को [मुक्तीवरा] मुक्ति लक्ष्मी को वराने वाले [ऋषि इन्द्रान्] ऋषियों में प्रमुख [गणेशान् अपि] गणधर देव की, [तद्] उनके [तद्गुणाप्त्यै] गुणों की प्राप्ति के लिए, [स्तुवे] स्तुति करता हूँ । ॥९॥
नृसुर-खचर-सेव्या विश्व-श्रेष्ठर्द्धि-भूषा
विविध-गुणसमुद्रा मारमातङ्ग-सिंहाः ।
भव-जल-निधि-पोता वन्दिता मे दिशन्तु
मुनि-गण-सकला: श्रीसिद्धिदाः सदृषीन्द्रा: ॥१०॥
अन्वयार्थ : [नृसुर-खचर-सेव्या] मनुष्य, देव, विद्याधरों से पूज्य [विश्वश्रेष्ठ ऋद्धि: भूषा] विश्व की श्रेष्ठ ऋद्धियों से विभूषित [विविध-गुणसमुद्रा] अनेक गुणों को धारण करने वाले [मारमातङ्ग-सिंहाः] काम-देव रुपी हाथी को वश में करने के लिए सिंह के समान [भव-जल-निधि-पोता] संसार रुपी समुद्र को पार करने के लिए जहाज के [सदृशा] समान [वन्दिता] वन्दना योग्य [मुनि-गण-सकला: इन्द्रा] समस्त मुनि समूह/गण के इंद्र [मे श्रीसिद्धिदाः दिशन्तु] मुझे सिद्ध-पद प्रदान करने वाले हो ॥१०॥