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श्री
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मंदालसा-स्तोत्र
सिद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसारमाया परिवर्जितोऽसि ।
शरीरभिन्नस्त्यज सर्व चेष्टां, मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ॥१॥
अन्वयार्थ : मन्दालसा अपने पुत्र कुन्दकुन्द को लोरी सुनाती हुई कहती है कि हे पुत्र! तुम सिद्ध हो, तुम बुद्ध हो, केवलज्ञानमय हो, निरंजन अर्थात् सर्व कर्ममल से रहित हो, संसार की मोह-माया से रहित हो, इस शरीर से सर्वथा भिन्न हो, अत: सभी चेष्टाओं का परित्याग करो। हे पुत्र! मन्दालसा के वाक्य को सेवन कर अर्थात् हृद्य में धारण कर। यहाँ पर कुन्दकुन्द की माँ अपने पुत्र को जन्म से ही लोरी सुनाकर उसे शुद्धात्म द्रव्य का स्मरण कराती है, अत: यह कथन शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा है। जो उपादेय है।
ज्ञाताऽसि दृष्टाऽसि परमात्म-रूपी, अखण्ड-रूपोऽसि ।
जितेन्द्रियस्त्वं त्यज मानमुद्रां, मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ॥२॥
अन्वयार्थ : हे पुत्र! तुम ज्ञाता हो, दृष्टा हो, जो रूप परमात्मा का है तुम भी उसी रूप हो, अखण्ड हो, गुणों के आलय हो अर्थात् अनन्त गुणों से युक्त हो, तुम जितेन्द्रिय हो, अत: तुम मानमुद्रा को छोड़ो, मानव पर्याय की प्राप्ति के समय सर्वप्रथम मान कषाय ही उदय में आती है उस कषाय से युक्त मुद्रा के त्याग के लिए माँ ने उपदेश दिया है। हे पुत्र! मन्दालसा के इन वाक्यों को हृदय में धारण करो।
शान्तोऽसि दान्तोऽसि विनाशहीनः, सिद्धस्वरूपोऽसि कलंकमुक्त:।
ज्योतिस्वरूपोऽसि विमुञ्च मायां, मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ॥३॥
अन्वयार्थ : माँ मन्दालसा अपने पुत्र कुन्दकुन्द को उसके स्वरूप का बोध कराती हुई उपदेश करती है कि हे पुत्र! तुम शान्त हो अर्थात् राग-द्वेष से रहित हो, तुम इन्द्रियों का दमन करने वाले हो, आत्म-स्वरूपी होने के कारण अविनाशी हो, सिद्ध स्वरूपी हो, कर्म रूपी कलंक से रहित हो, अखण्ड केवलज्ञान रूपी ज्योति-स्वरूप हो, अत: हे पुत्र! तुम माया को छोड़ो। मन्दालसा के इन वाक्यों को हृदय में धारण करो।
एकोऽसि मुक्तोऽसि चिदात्मकोऽसि, चिद्रुपभावोऽसि चिरंतनोऽसि ।
अलक्ष्यभावो जहि देहमोहं, मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ॥४॥
अन्वयार्थ : माँ मन्दालसा लोरी गाती हुई अपने पुत्र कुन्दकुन्द को कहती है कि हे पुत्र! तुम एक हो, सांसारिक बन्धनों से स्वभावत: मुक्त हो, चैतन्य स्वरूपी हो, चैतन्य स्वभावी आत्मा के स्वभावरूप हो, अनादि अनन्त हो, अलक्ष्यभाव रूप हो, अत: हे पुत्र! शरीर के साथ मोह परिणाम को छोड़ो। हे पुत्र! मन्दालसा के इन वाक्यों को हृदय में धारण करो।
निष्काम-धामासि विकर्मरूपा, रत्नत्रयात्मासि परं पवित्रम् ।
वेत्तासि चेतोऽसि विमुंच कामं, मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ॥५॥
अन्वयार्थ : जहाँ कोई कामनायें नहीं हैं ऐसे मोक्ष रूपी धाम के निवासी हो, द्रव्यकर्म तज्जन्य भावकर्म एवं नोकर्म आदि सम्पूर्ण कर्मकाण्ड से रहित हो, रत्नत्रमय आत्मा हो, शक्ति की अपेक्षा केवलज्ञानमय हो, चेतन हो, अत: हे पुत्र! सांसारिक इच्छाओं व एन्द्रियक सुखों को छोड़ो। मन्दालसा के इन वाक्यों को हृदय में धारण करो।
प्रमादमुक्तोऽसि सुनिर्मलोऽसि, अनन्तबोधादि-चतुष्टयोऽसि।
ब्रह्मासि रक्ष स्वचिदात्मरूपं, मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ॥६॥
अन्वयार्थ : अपने पुत्र को शुद्धात्मा के प्रति इंगित करती हुई कुन्दकुन्द की माँ मन्दालसा लोरी के रूप में फिर कहती है- तुम प्रमाद रहित हो, क्योंकि प्रमाद कषाय जन्य है, सुनिर्मल अर्थात् अष्टकर्मों से रहित सहजबुद्ध हो, चार घातियाकर्मो के अभाव में होने वाले अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यरूप चतुष्टयों से युक्त हो, तुम ब्रह्म तथा शुद्धात्मा हो, अत: हे पुत्र! अपने चैतन्यस्वभावी शुद्ध स्वरूप की रक्षा कर! माँ मदालसा के इन वाक्यों को अपने हृदय में सदैव धारण करो।
कैवल्यभावोऽसि निवृत्तयोगी, निरामयी ज्ञात-समस्त-तत्त्वम् ।
परात्मवृत्तिस्स्मर चित्स्वरूपं, मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ॥७॥
अन्वयार्थ : तुम कैवल्यभाव रूप है, योगों से रहित हो, जन्म-मरण जरा आदि रोगों से रहित होने के कारण निरामय हो, समस्त तत्वों के जाता हो, सर्वश्रेष्ठ निजात्म तत्त्व में विचरण करने वाले हो, हे पुत्र! अपने चैतन्य स्वरूपी आत्मा का स्मरण करो। हे पुत्र! माँ मन्दालसा के इन वाक्यों को सदैव अपने हृदय में धारण करो।
चैतन्यरूपोऽसि विमुक्तभावो भावाविकर्माऽसि समग्रवेदी ।
ध्यायप्रकामं परमात्मरूपं, मन्दालसा वाक्यमुपास्व पुत्र! ॥८॥
अन्वयार्थ : माँ मन्दालसा झूले में झूलते हुए पुत्र कुन्दकुन्द को शुद्धात्म स्वरूप की घुट्टी पिलाती हुई लोरी कहती है - हे पुत्र! तुम चैतन्य स्वरूप हो, सभी विभाव-भावों से पूर्णतया मुक्त हो, सभी कर्मों से रहित हो, सम्पूर्ण लोकालोक के ज्ञाता हो, परमोत्कृष्ट एक अखण्ड ज्ञान-दर्शनमय सहजशुद्धरूप जो परमात्मा का स्वरूप है वह तुम स्वयं हो, अत: अपने परमात्मस्वरूप का ध्यान करो। हे पुत्र! मन्दालसा के इन वाक्यों को अपने हृदय में धारण करो।
इत्यष्टकैर्या पुरतस्तनूजम्, विबोधनार्थ नरनारिपूज्यम् ।
प्रावृज्य भीताभवभोगभावात्, स्वकैस्तदाऽसौ सुगतिं प्रपेदे ॥९॥
अन्वयार्थ : इन आठ श्लोकों के द्वारा माँ मन्दालसा ने अपने पुत्र कुन्दकुन्द को सद्बोध प्राप्ति के लिए उपदेश किया है, जिससे वह सांसारिक भोगों से भयभीत होकर समस्त नर-नारियों से पूज्य श्रमण दीक्षा धारण कर सद्गति को प्राप्त करे।
इत्यष्टकं पापपराड्ंमुखो यो, मन्दालसायाः भणति प्रमोदात् ।
स सद्गतिं श्रीशुभचन्द्रमासि, संप्राप्य निर्वाण गतिं प्रपेदे ॥१०॥
अन्वयार्थ : इस प्रकार जो भव्य जीव मन्दालसा द्वारा रचित इन आठ श्लोक मय स्तोत्र को पापों से पराडग्मुख होकर व हर्षपूर्वक पढ़ता है वह श्रीशुभचन्द्ररूप सद्गति को प्राप्त होकर क्रमश: मोक्ष को प्राप्त करता है।
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