निरख सखी ऋषिन को ईश यह ऋषभ जिन, परखि कैं स्व-पर परसौंज छारी ॥नैन नाशाग्र धरि, मैन विनसाय कर,मौनयुत स्वास दिशि सुरभिकारी ॥धरासम क्षांतियुत, नरामरखचर-नुत, वियुत रागादि मद दुरित हारी ।जास क्रम पास भ्रम नाश पंचास्य-मृग, वास करि प्रीति की रीति धारी ॥ध्यान-दौं माहिं विधि-दारु प्रजराहिं,शिर केश शुभ किधों धूवाँ विथारी ।फँसे जगपंक जन रंक तिन काढ़ने,किधों जगनाह बाँह प्रसारी ॥तप्त हाटक वरण, वसन विन आभरण,खरे थिर ज्यों शिखर मेरुकारी ।'दौल' को देन शिवधौल जगमौल जे, तिन्हें कर जोर वन्दना हमारी ॥
अर्थ : हे सखी ! ऋषियों के स्वामी श्री ऋषभ जिनेन्द्र को देखो, जिन्होंने स्व और पर-दोनों को भली प्रकार पहचानकर पर की परिणति का पूर्णतः त्याग कर दिया है। इन्होने अपने नेत्रों को नासिका के अग्रभाग पर धारण कर रखा है और कामभाव को विनष्ट कर दिया है। ये मौन भाव से युक्त है और इनकी श्वास दिशाओं को सुगन्धित कर रही हे।
ये पृथ्वी के समान थैर्य से युक्त है, मनुष्य, देव एवं विद्याधरों द्वारा नमस्कृत हैं, रागादि विकार-भावों से रहित हैं और सम्पूर्ण पापों को दूर करनेवाले है। सिंह और मृग भी इनके चरणों के पास भ्रम (अज्ञान, क्रोध) को दूर करके प्रेम का भाव धारण करते हैं।
इनके सिर के बाल सफेद है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानों उन्होंने ध्यानरूपी अग्नि में कर्मरूपी काप्ठ को जला दिया है और यह उसी के धुएँ का विस्तार है। उनकी भुजाएँ नीचे लटकी हुई है जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानों उन्होंने ससार के कीचड़ में फेंसे हुए अनाथ प्राणियों को उसमें से निकालने के लिए ही अपनी भुजाओं को इस प्रकार नीचे लटका रखा है।
श्री ऋषभ जिनेन्द्र के शरीर का वर्ण तप्त स्वर्ण के समान है। वे वस्त्र-आभरण से रहित हैं ओर सुमेरु पर्वत के शिखर के समान स्थिर है। कविवर दौलतराम कहते हैं कि ये श्री ऋषभ जिनेन्द्र मुझे मोक्षमहल को देनेवाले हैं और जगत के शिरोमणि हैं। मैं इन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।