गुरु कहत सीख इमि बार-बार,विषसम विषयन को टार-टार ॥टेक॥इन सेवत अनादि दुख पायो, जनम मरन बहु धार धार ॥१॥कर्माश्रित बाधा-जुत फाँसी, बन्ध बढ़ावन द्वंदकार ॥२॥ये न इन्द्रिकै तृप्ति-हेतु जिमि, तिस न बुझावत क्षारवार ॥३॥इनमें सुख कल्पना अबुधके, बुधजन मानत दुख प्रचार ॥४॥इन तजि ज्ञान-पियूष चख्यौ तिन, 'दौल' लही भववार पार ॥५॥
अर्थ : श्री गुरु बार-बार यह सीख देते हैं, उपदेश देते हैं कि विष के समान इन इंद्रिय-भोगों को तू दूर हटा दे, छोड़ दे।
Shri Guru repeatedly teaches to stay away from poisonous materialistic pleasures.
इन विषय-भोगों को भोग-भोग कर, इन्हें मान्यता देकर अनेक बार तू जन्म मरण धारण करता रहा है।
You have been wearing birth and death many times by giving recognition to these subjects and enjoyments.
इन कर्मों का आसरा / आधार लेकर दुःखसहित बंधन को, उलझनभरी जकड़न को कसता रहा, नवीन कर्म-बंध से पुष्ट करता रहा।
Taking the help / basis of these deeds, Jeev continues to tighten the unhappy bond, confusing tightness, and reinforces new karma-bandha.
ये विषय-भोग इन्द्रियों को कभी तृप्त कर ही नहीं पाते, इंद्रिय-विषयों से कभी संतुष्टि नहीं होती, जिस प्रकार खारे जल से प्यास नहीं मिटती।
These subjects never satisfy the senses, there is never any satisfaction with the senses, salted water wont quench thirst.
इनमें सुख की कल्पना करना बुद्धिहीनता है, अविवेक है । बुद्धिमान तो इनमें दुःख ही मानता है।
To imagine happiness in them is intelligence, indiscretion. The wise only believes in them.
इनको छोड़कर जिसने ज्ञानामृत का पान किया. दौलतराम कहते हैं कि वह ही भवसागर के पार हो गया।
Except for those who drank Jnanamrit. Daulatram says that he has crossed the Bhavsagar.