चेतन तैं यौं ही भ्रम ठान्यो, ज्यों मृग मृगतृष्णा जल जान्यो ।ज्यौं निशितममैं निरख जेवरी, भुजंग मान नर भय उर आन्यो ॥ज्यौं कुध्यान वश महिष मान निज, फंसि नर उरमाहीं अकुलान्यौ ।त्यौं चिर मोह अविद्या पेर्यो, तेरों तैं ही रूप भुलान्यो ॥चेतन तैं यौं ही भ्रम ठान्यो, ज्यों मृग मृगतृष्णा जल जान्यो ॥१॥तोय तेल ज्यौं मेल न तनको, उपज खपज मैं सुखदुख मान्यो ।पुनि परभावनको करता ह्वै, तैं तिनको निज कर्म पिछान्यो ॥चेतन तैं यौं ही भ्रम ठान्यो, ज्यों मृग मृगतृष्णा जल जान्यो ॥२॥नरभव सुथल सुकुल जिनवानी, काललब्धि बल योग मिलान्यो ।'दौल' सहज भज उदासीनता, तोष-रोष दुखकोष जु भान्यो ॥चेतन तैं यौं ही भ्रम ठान्यो, ज्यों मृग मृगतृष्णा जल जान्यो ॥३॥
अर्थ : हे चेतन ! तू भ्रमवश भटक रहा है, जैसे मृग जल की चाह में, मिट्टी के ऊपर चमकते कणों को ही जल समझ कर भागता है; जैसे रात्रि के गहरे अँधेरे में रस्सी को साँप समझकर मनुष्य का हृदय भय से भर जाता है उसी भाँति तू भी भ्रम को धारणकर भटक रहा है।
जैसे खोटे ध्यानवश भैंसें का ध्यान करनेवाला अपने को मोटा व बलवान भैंसा मानता हुआ सोचने लगता है, समझने लगता है, चिन्ता करने लगता है कि वह इस छोटे-से द्वार से बाहर कैसे निकल सकता है? और इसी चिन्तन के कारण अंतरंग में आकुलित होता है; वैसे ही तू अनादि से मोहवश अविद्या में रमकर अपना ही स्वरूप भूल गया है।
जैसे पानी और तेल का मेल नहीं होता उसी भांति इस शरीर और आत्मा का भी मेल नहीं है फिर भी तू इस शरीर के उत्पन्न होने व विनाश होने में सुख व दुःख मानता है। फिर फिर इन पर-भावों का कर्ता होकर, उनको अपना ही कर्म पहचानता है, समझता है ।
यह नरभव, यह श्रेष्ठ क्षेत्र, अच्छा कुल और जिनवाणी - ये सब संयोग काललब्धि के बल से मिले हैं । दौलतरामजी कहते हैं कि अब तू विरागता को भज, स्वीकार कर और तुष्टि व विरोध को, क्रोध को, राग-द्वेष को दुःख की खान-भंडार जान।